गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 414

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

विंश: सन्दर्भ:

20. गीतम्

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पद्यानुवाद
श्रीजयदेव कथित यह कविता कण्ठहार हो जिनकी।
रहे न इच्छा हार ग्रहण की वामा यौवन धनकी॥

बालबोधिनी- श्रीजयदेव कवि द्वारा कहा गया यह गीत रत्नों के हार को तिरस्कृत करने वाला, युवतियों को उदासीन बनाने वाले भगवद्भक्तों के कण्ठ में सदा निवास करे। यह हार अधरीकृत है। जो मुक्तादि से ग्रथित हार को अवदोलित करने वाला है। जिन पराशर आदि वैष्णवों का चित्त भगवान में लगा हुआ है, वे लोग रत्नों के हार को नहीं, जयदेव कथित इस हार को धारण करेंगे। वे ही वैष्णव इस गीत को अपने कण्ठ से आलिंगित करेंगे-किसी रमणी को नहीं। यह हार इन्हीं वैष्णवों के गले में विराजेगा। हार और रमणी तो सांसारिक रागियों के गले को अलंकृत करते हैं, और वे भी सभी अवस्थाओं में नहीं बल्कि तारुण्यावस्था में ही। जयदेव कवि कृत यह गीत श्रीहरि विषयक होने से भगवद्भक्तों के कण्ठ को सभी अवस्थाओं में समलंकृत करे।

प्रस्तुत अष्टपदी में श्रृंगार विप्रलम्भ नामक रस है। उत्तम नायक है। श्रीहरितालराजिजलधरविलसित नाम का यह बीसवाँ प्रबन्ध सम्पूर्ण हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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