गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 412

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

विंश: सन्दर्भ:

20. गीतम्

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पद्यानुवाद
स्मर-शर-सम नख, कर निज सुन्दर,
दे हाथों में सखिके सत्वर,
खन-खन वलय बजा शैया पर।
चल हारे हरि शील दयन में,
चल सखि! चल घनश्याम सदन में॥

बालबोधिनी- सखी श्रीराधा जी से कहती है- हे सुभगे! तुम्हारे इन कोमल मनोहर हाथों के नाखून कामदेव के पंच-बाणरूपी पुष्प हैं। इन सुन्दर नख वाले हाथों से बड़े हाव-भावपूर्वक सखी का हाथ पकड़कर लीलापूर्वक चलो। ये नख काम के बाण के समान ही बेधक हैं। इस रतिरण में ये मनोहर नख ही तुम्हारे शस्त्रास्त्र हैं। जिस प्रकार कोई योद्धा अपने प्रतिद्वन्द्वी को सूचित करके ही युद्ध में प्रवृत्त होता है। उसी प्रकार तुम भी अपने हाथों के कंकण की ध्वनि से, अपनी चूडि़यों की झंकार से कामदेव के वशीभूत प्रतीक्षारत श्रीकृष्ण को अपने आगमन को जता दो। वे अपनी तैयारी में लगे हैं, अपने मन की अभिलाषापूर्ण करना चाहते हैं। उन्हें सूचित करके ही तुम रतिरण में प्रवृत्त होओ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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