गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 409

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

विंश: सन्दर्भ:

20. गीतम्

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अधिगतमरिवल-सखीभिरिदं तव वपुरपि रति-रण-सज्जम्॥
चण्डि! रणित-रसना-रव-डिण्डिममभिसर सरसमलज्जम्॥
मुग्धे.... ॥6॥[1]

अनुवाद- हे रतिरणनिपुणे! हे चण्डि! तुम्हारा यह शरीर रति-रण हेतु सुसज्जित हो रहा है। यह विलक्षणता तुम्हारी सखियों ने जान ली है। अत: लज्जा का परित्याग कर मणिमय मेखला के मनोहर सिञ्जन से डिण्डिम ध्वनि करती हुई परमोत्साह के साथ अभिसरण हेतु गमन करो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [सम्प्रति माधवानुसरणे काञ्चयादि-भूषणमेव त्वां वाद्यं व्यनक्तीत्याह]- अयि चण्डि (रतिरणप्रवीणे) [न केवलं तव मन एव, परन्तु] तव वपु: (शरीरम्) अपि रतिरणसज्जं (रतिरणे) सुरतसंग्रामे सज्जं (सज्जितं) इति अखिलसखीभि: (सहचरीवर्गै:) अधिगतं (परिज्ञातम्) [अन्यथा कथं काञ्च्यादि ग्रहणमति भाव:]; [अत:] रणितरसनारवडिण्डिमं (रणिता शब्दिता या रसना काञ्ची तस्या: रव: ध्वनिरेव डिण्डिम: रणवाद्यभेद: यत्र तादृशं यथा तथा) सरसम् (सोत्साहम्) अतएव अलज्जं (लज्जाशून्यं यथा तथा) अभिसर (प्रियाभिमुखमनंगरंगभूमिं याहि) [रणसज्जितस्य विलम्बो भीतिमेव आसञ्जयति इत्यर्थ:] ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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