गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 403

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

विंश: सन्दर्भ:

20. गीतम्

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श्रृणुरमणीयतरं तरुणीजनमोहन-मधु-रिपु-वरावम्।
कुसुम-शरासन शासन-वन्दिनि पिकनिकरे भज भावम्॥
मुग्धे.... ॥3॥[1]

अनुवाद- तुम तरुणियों के मन-मोहक भ्रमरों (श्रीकृष्ण) के रमणीयतर सुमधुर वचनों का श्रवण करो। कन्दर्प के सुमधुर आदेश का प्रचार करने वाले कोकिल समूह के गान में निज भावों को प्राप्त करो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [तत्र च गत्वा]- रमणीयतरं (अतिमनोहरं) [अतएव] तरुणी-जन-मोहन-मधुरिपु-रावम् (तरुणीजनानां युवतीनां मोहनं मोहजनकं मधुरिपो: कृष्णस्य रावं वचनं) शृणु [तथा] कुसुम-शरासन-शासन-वन्दिनि (कुसुम-शरासनस्य पुष्पधन्वन: कामस्य शासनम्र आदेश: "हे युवत्य: कान्तसन्नाहमन्तरेण मद्रबाणात् अन्यो रक्षिता नास्ति, अतो मानं त्यजत" इति कामाज्ञा तस्य वन्दिनि स्तावके) पिक-निकरे (कोकिलसमूहे) भावं (अनुरागं) भज। [इदानीं कोकिल-समूहे कृतं विद्वेषं त्यक्त्वा तेषामालापं सुखेन शृणु इत्यर्थ:] ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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