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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
श्रीश्रीगुरु-गौरांगौ जयत:
प्रस्तावना(ग)
तात्पर्य यह है कि लौकिक काम और अप्राकृत प्रेम इन दोनों के लक्षण अलग-अलग हैं। लौकिक काम लोहे के समान है तथा अप्राकृत प्रेम सोने के समान है। अपनी इन्द्रियों के लिए सुखकर स्पृहा को काम कहते हैं। किन्तु श्रीकृष्णेन्द्रिय-प्रीति को विशुद्ध प्रेम कहते हैं। केवल अपना संभोग ही काम का तात्पर्य है और श्रीकृष्ण को सुखी बनाना ही महाबलवान प्रेमका उद्देश्य होता है। श्रील कविराज गोस्वामी के इस गम्भीर आशय को कितने लोग समझने में समर्थ हैं? विशेषकर जो अपने इन्द्रियतर्पण में ही सदा व्यस्त हैं, वे इसे समझ नहीं सकते हैं। इसीलिए श्रीराधा-कृष्ण के अप्राकृत प्रेम की लीला भी उनके निकट कामवासना के खेल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यदि वे श्रीराधा जी एवं उनकी सखियों के समान लोकधर्म, वेदधर्म, देहधर्म इत्यादि को सर्वथा त्यागकर किसी को प्रेम कर पाते, तो वे इन लीलाओं की तत्त्व कथा से एक दिन अवश्य अवगत हो पाते क्योंकि ऐसा होने पर ही वे समझ सकते कि आत्मसुख की कामना नहीं रखकर भी निस्वार्थ प्रेम किया जा सकता है। इसी नि:स्वार्थ अप्राकृत प्रेम की शिक्षा देने के लिए ही वैष्णव कविगण लेखनी को धारण करते हैं। कविकेशरी श्रीजयदेव ने भी यही किया है क्योंकि स्वयं-भगवान श्रीकृष्ण इस नि:स्वार्थ अप्राकृत प्रेम के वशीभूत हो जाते हैं। वे इतने वशीभूत हो जाते हैं कि जहाँ भी वे ऐसी प्रीति की गन्धपा लेते हैं, वे उनके चरणों में गिरकर 'देहि पदपल्लवमुदारं' कहने के लिए भी प्रस्तुत रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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