गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 390

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:

ऊनविंश: सन्दर्भ:

19. गीतम्

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अनुवाद हे कृशांगि! तुम्हारा यह व्यर्थ मौन-अवलम्बन मुझे व्यथित कर रहा है। हे तरुणि! पञ्चम स्वर का विस्तार करो। मधुर आलापों तथा कृपा अवलोकन के द्वारा मेरे संताप का विमोचन करो। हे सुमुखि! अपनी विमुखता के भाव का परित्याग करो, मेरा त्याग नहीं। हे अविचारकारिणि! तुमसे अतिशय स्नेह करने वाला तुम्हारा प्रिय यहाँ उपस्थित है।

बालबोधिनी- श्रीराधा ने अब भी कोई उत्तर न दिया, तब श्रीकृष्ण अत्यन्त अनुनय भरे वचनों से उनसे कहने लगे हे तन्वि! कितनी कृशता को प्राप्त हो गयी हो? तुम्हारी चुप्पी तुम्हें व्यर्थ ही अन्दर-ही-अन्दर कुतर रही है, मुझे इतना कष्ट दे रही है, पञ्चम राग छेड़ो, कोमलता धारण करो। इस वसन्त ऋतु में तो कामिनियाँ अपने प्रियतमों का अनुकरण किया करती हैं, तुम तो कोयल से भी अधिक मधुर संलापिनी हो, मधुर आलाप करो, अपनी दृष्टि से रस-वृष्टि करो। हे तरुणि! कृपा-अवलोकन द्वारा मेरा संताप दूर करो। हे सुमुखि! तुम्हारे लिए मेरे प्रति वैमुख्य उचित नहीं है। उदासीनता का अपरिग्रह करो, दम्भ छोड़ दो, मेरा परित्याग मत करो। हे मुग्धे! हे विचाररहिते! मैं तुम्हारा प्रिय हूँ। अतिशय स्निग्ध स्नेहपरायण हूँ। अनाहूत ही यहाँ उपस्थित हुआ हूँ। यह देखो साश्रु होकर खड़ा हूँ। अपनी स्नेह दृष्टि से मुझे बाँध लो।

प्रस्तुत श्लोक में हरिणी वृत्त, यथासंरत्न अलंकार, अनुकूल नायक, प्रसाद गुण, कैशिकी वृत्ति, वैदर्भी रीति तथा मागधी गीति है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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