विषय सूची
श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:
ऊनविंश: सन्दर्भ:
19. गीतम्
अनुवाद हे कृशांगि! तुम्हारा यह व्यर्थ मौन-अवलम्बन मुझे व्यथित कर रहा है। हे तरुणि! पञ्चम स्वर का विस्तार करो। मधुर आलापों तथा कृपा अवलोकन के द्वारा मेरे संताप का विमोचन करो। हे सुमुखि! अपनी विमुखता के भाव का परित्याग करो, मेरा त्याग नहीं। हे अविचारकारिणि! तुमसे अतिशय स्नेह करने वाला तुम्हारा प्रिय यहाँ उपस्थित है। बालबोधिनी- श्रीराधा ने अब भी कोई उत्तर न दिया, तब श्रीकृष्ण अत्यन्त अनुनय भरे वचनों से उनसे कहने लगे हे तन्वि! कितनी कृशता को प्राप्त हो गयी हो? तुम्हारी चुप्पी तुम्हें व्यर्थ ही अन्दर-ही-अन्दर कुतर रही है, मुझे इतना कष्ट दे रही है, पञ्चम राग छेड़ो, कोमलता धारण करो। इस वसन्त ऋतु में तो कामिनियाँ अपने प्रियतमों का अनुकरण किया करती हैं, तुम तो कोयल से भी अधिक मधुर संलापिनी हो, मधुर आलाप करो, अपनी दृष्टि से रस-वृष्टि करो। हे तरुणि! कृपा-अवलोकन द्वारा मेरा संताप दूर करो। हे सुमुखि! तुम्हारे लिए मेरे प्रति वैमुख्य उचित नहीं है। उदासीनता का अपरिग्रह करो, दम्भ छोड़ दो, मेरा परित्याग मत करो। हे मुग्धे! हे विचाररहिते! मैं तुम्हारा प्रिय हूँ। अतिशय स्निग्ध स्नेहपरायण हूँ। अनाहूत ही यहाँ उपस्थित हुआ हूँ। यह देखो साश्रु होकर खड़ा हूँ। अपनी स्नेह दृष्टि से मुझे बाँध लो। प्रस्तुत श्लोक में हरिणी वृत्त, यथासंरत्न अलंकार, अनुकूल नायक, प्रसाद गुण, कैशिकी वृत्ति, वैदर्भी रीति तथा मागधी गीति है।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
सर्ग | नाम | पृष्ठ संख्या |