गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 385

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:

ऊनविंश: सन्दर्भ:

19. गीतम्

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मुग्धे विधेहि मयि निर्दय-दन्तदंश
दोर्वल्लि-बन्ध-निबिडस्तन-पीडनानि ।
चण्डि! त्वमेव मुदमुञ्च न पञ्चबाण-
चाण्डाल-काण्ड-दलनादसव: प्रयान्तु ॥2॥ [1]

पद्यानुवाद
पञ्चबाण-चाण्डाल बाणसे, प्राण न जायें मेरे।
निज अपराधीको रदसे, अब छेदो तुम्हीं सबेरे॥
और बाँध लो बाहुलताके, बन्धनमें अति मुझको।
दृढ़ कुच-पीड़ा दे हँस बोलो, बन्दी मुक्ति न तुझको॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [यदि मद्वचनात् न प्रत्येषि तर्हि स्वयमेव दण्डमाचरेत्याह]- अयि मुग्धे, मयि निर्दय-दन्तदंश:-दोर्वल्लि-बन्ध-निविड़-स्तनपीड़नानि (निर्दयं, निष्ठुरं यथा तथा दन्तदंश: दशनाघात: तथा दोर्वल्लिबन्ध: भुजलताबन्धनं तथा निविड़ाभ्यां स्तनाभ्यां पीड़नञ्च तानि) विधेहि (घटय)। अयि चण्डि (कोपने) त्वमेव मूदम् (सुखं) अञ्च (प्राप्नुहि) तव सुखोत्पादनाय ईदृग्रविधेन दण्डेन यदि मे प्राणा यान्ति, यान्तु, परं] पञ्चबाण-चाण्डाल-काण्ड-दलनात् (पञ्चबाण एव चाण्डाल: दुष्टचेष्टत्वादिति भाव: तस्य काण्डदलनात् बाणप्रहारात्) मम असव: (प्राणा:) न प्रयान्तु (गच्छन्तु) ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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