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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:
ऊनविंश: सन्दर्भ:
19. गीतम्
अनुवाद- हे प्रिये! अपने मनोहर चरण किसलय को मेरे मस्तक पर आभूषण-स्वरूप अर्पण कराओ। जिससे मुझे जर्जरित करने वाला यह अनंगरूप गरल प्रशमित हो जाय, मदन यातना रूप निदारुण जो अनल मुझे संतप्त कर रहा है, उससे वह दाहजन्य उत्पन्न विकार भी शान्त हो जाय। बालबोधिनी- हे राधे! मुझे अस्वीकार करोगी, तभी मेरा ताप दूर होगा। सर्वविजयी तुम्हारे गुणों की स्फूर्ति होने से मैं विवश होकर तुमसे प्रार्थना कर रहा हूँ कि अपने पद-पल्लव को मेरे मस्तक पर अर्पित करो। ये पद-पल्लव अति उदार हैं, ये प्रार्थीजनों के मनोभीष्ट को पूर्ण करने वाले हैं। नव-पल्लव के समान लालिमा, कोमलता और शैत्य आदि गुणों से विभूषित होने के कारण अलंकार-स्वरूप हैं। इन चरणों को मेरे मस्तक पर अर्पण करने से कामजन्य गरल का खण्डन तो होगा ही मेरा मस्तक भी समलंकृत हो जायेगा। यहाँ काम में सर्पविष की उत्प्रेक्षा की गयी है। तुम्हारे पैरों का संस्पर्श पाकर कामगरल उसी प्रकार समाप्त हो जायेगा जिस प्रकार गरुड़ का चरण-स्पर्श प्राप्तकर सर्पविष समाप्त हो जाता है। कामजन्य संताप सम्बन्ध से अन्तर्मन में उदित मनोविकार आदि दोष भी तुम्हारे चरणों के अर्पण करने से समाप्त हो जायेंगे। यह कामक्लेश अति निदारुण है, अनल के समान मेरे हृदय को जला रहा है। एक-एक मर्म अंगार बन रहा है। भीतर-बाहर ज्वलनशील यह काम-ज्वर तुम्हारे पद-पल्लव के सिर पर रखने से ही दूर होगा। इस सम्पूर्ण प्रबन्ध की नायिका श्रीराधा प्रौढ़ा तथा मानवती हैं और नायक श्रीकृष्ण अनुकूल हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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