गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 379

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:

ऊनविंश: सन्दर्भ:

19. गीतम्

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स्मर-गरल-खण्डनं मम शिरसि मण्डनं देहि पद-पल्लवमुदारम्।
ज्वलति मयि दारुणो मदन-कदनानलो[1] हरतु तदुपाहितविकारम्॥
प्रिये चारुशीले.... ॥7॥[2]

पद्यानुवाद
धरो पाद-पल्लव, मदन-ताप हर्ता।
इसी तप्त शिर पर हृदय शान्ति कर्ता॥
चटुल चाटु पटु हरि, भुला राधिका को।
सुलावे हृदय पर, झुला साधिका को॥
प्रिये! चारुशीले! तजो मान प्यारा।
अधर पन-रस दे हरो ताप सारा॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मदनकदनारून: हति क्वचित; कामक्लेश एव दारुणोऽरुण: सूर्य: मयि ज्वलतिव्यर्थ:।
  2. अन्वय- [अतस्तदंगीकारेणैव मे तापोपशमनमिति तद्गुण-स्फुर्त्तिपरवश: सन् प्रार्थयते]- [अयि प्राणेश्वरि] मम शिरसि (मदीयमस्तके) स्मरगरलखण्डनं (काम-कालकूट-दमनं) उदारं (वाञ्छितप्रदत्वात् महत्) मण्डनं (भूषणरूपं) पदपल्लवं देहि (अर्पय); दारुण: (भीषण:) मदनकदनानल: (कामसन्तापाग्नि:) मयि ज्वलति; तदुपाहित-विकारं (तेन मदनतापानलेन उपाहित: उत्पादित: विकार: तम्) [ममेति शेष:] हरतु (शमयतु) [पदपल्लवधारण-मात्रेणैव तापो पयास्यतीति भाव:] ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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