गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 377

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:

ऊनविंश: सन्दर्भ:

19. गीतम्

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स्थल-कमलगञ्जनं मम हृदय-रञ्जनं जनित-रति-रंगपर भागम्।
भ्रण मसृण वाणि करवाणि चरणद्वयं सरस-लसदलक्तकरागम्॥
प्रिये.... ॥6॥[1]

पद्यानुवाद
चरण युग तुम्हारे, कमलमान गंजन।
रमण-राग कारी हृदय-भाग-रंजन॥
लगा दूँ उन्हीं में, इन्हीं हाथ से सब।
सजीला रसीला महावर सजनि! अब॥
प्रिये! चारुशीले! तजो मान प्यारा।
अधर पन-रस दे तरो ताप सारा॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- हे मसृणवाणि (स्निग्धभाषिणि) भण (कथय, आज्ञापय इत्यर्थ:); स्थल-कमल-गञ्जनं (स्थलकमलानां स्थलपद्मानां गञ्जनं तिरस्कारकम् आरक्तत्त्वात् कोमलत्वाच्च) मम हृदयरञ्जनं (हृदयरञ्जनं) (हृदयपरितोषकरं) जनित-रति-रंग-परभागं (जनित: कृत: रतिरंगे सुरतोत्सवे परभाग: परमशोभा येन तादृशं) तव चरणद्वयं (पादयुगलं) सरस-लसदलक्तक-रागं (सरसेन आर्द्रेण लसता दीप्तिमता उज्ज्वलेन इत्यर्थ: अलक्तकेन रागं लौहित्यं यत्र तादृशं सुरञ्जितमित्यर्थ:) करवाणि (विदधामि) ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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