गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 375

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:

ऊनविंश: सन्दर्भ:

19. गीतम्

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स्फुरतु कुचकुम्भयोरुपरि मणिमञ्जरी रञ्जयतु तव-हृदयदेशम्।
रसतु रसनापि तव घन-जघनमण्डले घोषयतु-मन्मथनिदेशम्॥
प्रिये.... ॥5॥[1]

पद्यानुवाद-
कनक-कुम्भ पर हार, मारो न अपना,
लसे आज जिससे, हृदय-देश दुगुना,
सघन री जघन पर रशन मंजु डोले,
करें घोष किण-किण, मदन-बोल बोले।
प्रिये! चारुशीले! तजो मान प्यारा,
अधर पन-रस दे हरो ताप सारा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [एतच्छ्रवणेन किञ्चित् प्रसन्नामवलोक्य आह]- प्रिये, तव कुचकुम्भयो: (स्तनकलसयो:) उपरि मणिमञ्जरी (मणिमाला) स्फुरतु (दोदुल्यमाना भवतु); तव हृदयदेशं रञ्जयतु (शोभयतु) च, [किञ्च] तव घनजघनमण्डले (घने निविड़े जघनमण्डले) रसनापि (काञ्ची अपि) रसतु (शब्दायताम्); मन्मथनिदेशं (मन्मथस्य कामस्य निदेशम् आज्ञां) घोषयतु च (प्रचारयतु) च [वचनभंगया प्रार्थनाविशेषोऽयम्] ॥5॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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