गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 365

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:

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अत्रान्तरे मसृण-रोष-वशामसीम-
नि:श्वासनि:सहमुखीं सुमुखीमुपेत्य।
सव्रीडमीक्षितसखीवदनां प्रदोषे
सानन्दगद्गदपदं हरिरित्युवाच ॥1॥[1]

पद्यानुवाद
लजती लखती सखी ओर औ लेतीं श्वासें रीते।
रोषमयी राधा से बोले प्रमुदित हरि दिन बीते॥

अनुवाद- इसी समय दिवस का अवसान होने पर मसृण रोषमयी दीर्घ नि:श्वासों को सहन करने में असमर्थ मलिन मुख वाली, लज्जापूर्वक सखी के मुख को देखने वाली सुवदना श्रीराधा के समीप आकर आनन्द से उत्फुल्लित हुए श्रीहरि श्रीराधा से गद्गद स्वर में कहने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अत्रान्तरे (अस्मिन्नावसरे) प्रदोषे (रजनीमुखे) हरि: (श्रीकृष्ण:) असीम-नि:श्वास-नि:सहमुखीं (असीमनि:श्वासेन पुन: पुन: नि:श्वासेन नि:सहं कान्तवचनादिरहितं मुखं यस्या: तां) तथा मसृणरोषवशाम् (मसृणस्य अनुताप-शिथिलस्य रोषस्य वशाम् अधीनाम्; शिथिलमानेन सख्यायत्तामित्यर्थ:) [अतएव] सब्रीड़ं (किमधुना विधेयमिति सलज्जं यथास्यात् तथा) ईक्षितसखीवदनां (ईक्षितं दृष्टं सख्या: वदनं यया तादृशीं) सुमुखीं (किञ्चित्-कोपोशमेन प्रसन्नवदनां) राधाम् उपेत्य (प्राप्य) सानन्दगदगदपदं (सानन्दानि गदगदानी गलदक्षराणि पदानि यत्र तद् यथा स्यात् तथा) इति (वक्ष्यमाणं वचनम्) उवाच ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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