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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:
अष्टदश: सन्दर्भ:
18. गीतम्
स्निग्धे यत्परुषासि यत्प्रणमति-स्तब्धासि यद्रागिणि अनुवाद- राधे! श्रीकृष्ण ने विविध विनय वचनों से अनुरोध किया और तुम अत्यन्त कठोर बन गयीं। वे तुम्हारे निकट प्रणत हुए और तुमने उनकी ओर से मुख फेर कर उनकी उपेक्षा की, उन्होंने कितना प्रबल अनुराग दिखाया, तुम द्वेष कर रही हो। वे तुम्हारे प्रति उन्मुख हुए और तुम उनसे विमुख बनी रहीं। हे विपरीत-आचरण-कारिणी! इस आचरण-वैपरीत्य के कारण ही तुम्हें चन्दन विलेपन विष की भाँति, स्निग्ध सुशीतल चन्द्र प्रखर दिनकरसम, सुशीतल हिमकर हुताशनवत्र और रतिजनित हर्ष विषम यातना सदृश अनुभूत हो रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [अथ तस्यां निरुत्तरायां राधायां सखी सेर्यमेवाह]- [राधे] तस्मिन् प्रिये (कृष्णे) स्निग्धे (स्नेहार्द्रे) [अपि] यत् परुषा (निष्ठुरा कटुभाषिणीत्यर्थ:) [असि], प्रणमति (प्रणते) अपि यत् स्तब्धा (दण्डवतस्थिता) असि, रागिणि (अनुरागवति) [अपि] यत् द्वेषस्था (विरक्ता) असि, उन्मुखे (त्वन्मुखाव-लोकनोत्सुके) अपि विमुखतां (प्रतिकूलतां) याता (प्राप्ता) असि, अयि विपरीतकारिणि (प्रतिकूलवर्त्तिनि) तदेतत् ते यद्विपरीतं यातं] तद्युक्तम् (अनुरूपम्); [तत: किम् इत्यते आह]- तव श्रीखण्डचर्च्चा (चन्दन-विलेपनं) विषम् [विषमिव उद्वेजिका], शीतांशु: चन्द्र: तपन: (सूर्यवत्र सन्तापक:), हिमं हुतबह: (अग्नि:) [अग्निरिव दाहकं], तथा क्रीड़ामुद: (क्रीड़या मुद: आमोदा: रतिजनित-हर्षा इति यावत्) यातना: [सम्पद्यन्ते] [विपरीतबुद्धे: सर्वमेव विपरीतं भवतीति भाव:] ॥1॥
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