गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 358

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:

अष्टदश: सन्दर्भ:

18. गीतम्

Prev.png

हरिरुपयातु वदतु बहु-मधुरम्।
किमिति करोषि हृदयमतिविधुरम्॥
माधवे... 7॥[1]

अनुवाद- श्रीहरि को अपने निकट आने दो, सुमधुर बातें करने दो, क्यों हृदय को इतना अधिक दु:खी कर रही हो?

पद्यानुवाद
जा बोलों से गान झरो।
मानिनि! मत अब मान झरो॥

बालबोधिनी- सखी कहती है हे प्रिय राधे, हरि को अपने समीप आने दो, उन्हें मधुर बातें कहने दो। उनसे तुम्हारा पृथक रहना ठीक नहीं है। उनके चाटु वाक्यों से स्वयं को आनन्दित कर, उन्हें भी आनन्द प्रदान करो। तुम्हारा हृदय उन्हीं के लिए व्याकुल है, तुम अपने हृदय के विरुद्ध ऐसा क्यों करती हो? व्यर्थ में ही हृदय को अतिशय वञ्चित कर रही हो, इसी तरह मान करके अपने चित्त को सन्तप्त करना ठीक नहीं है, मान छोड़ दो।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [श्रोतव्यमेवाह]- हरि: उपयातु (समीपमागच्छतु) बहु मधुरं (चाटु) वदतु। किमिति (कथं) हृदयम् अतिविधुरं (व्याकुलं) करोषि? [श्रीहरेर्मधुरवचनेन मोदस्व चित्तं मा खेदय इत्यर्थ:] ॥7॥

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः