गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 353

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:

अष्टदश: सन्दर्भ:

18. गीतम्

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ताल-फलादपि गुरुमतिसरसम्
किं विफली कुरुषे कुच-कलशम्?
माधवे..... ॥2॥[1]

अनुवाद- सुपक्व ताल-फल से भी गुरुतर (भारी) एवं अति रसपूर्ण इन कुच-कलशों को विफल क्यों कर रही हो?

पद्यानुवाद
लज्जित ताल-फलों की गुरुता,
कुच-कलशों की अनुपम रसता,
रसमयि! रसका दान करो।
मानिनि! मत अब मान करो॥

बालबोधिनी- सखी कहती हैं कि हे राधे! तुम्हारे कुच-कलश ताल फल से भी श्रेष्ठ हैं। रस-शास्त्रों में ताल-फल को अति गुरु एवं रसमय फल बताया गया है। अत: जिन कुच-कलशों की रसता एवं गुरुता के सम्मुख ताल फल का गुरुत्व एवं रसत्त्व भी निकृष्ट हो जाता है, उनकी सार्थकता तो हरि में है, हरि के स्पर्श में है, इन कलशों का गुरुत्व उन्हीं के लिए है और तुम उनका उद्देश्य ही नष्ट कर रही हो। स्तनों की विस्तृति अभिव्यक्त करने के लिए ही उनकी तुलना कलशों से की गयी है। मान छोड़ दो एवं श्रीहरि को इस रस-विलास का अनुभव करने दो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [सुखमस्तु तेन मम किम्? इति चेत् स्तनाभ्यां किमपराद्धमिति सोत्प्रासमाह]- तालफलात् अपि गुरुं (स्थौल्येन काठिन्येन वर्त्तुलत्वेन च तालफलादपि श्रेष्ठं) अतिसरसं (रसभरपूर्णं) कुचकलसं (स्तनकुम्भं) किमु (किमर्थं) विफलीकुरुषे (व्यर्थयसि) [तदनुभवं बिना अस्य विफलीकरणं न युक्तमित्यर्थ:] ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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