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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:
अष्टदश: सन्दर्भ:
18. गीतम्
गीतगोविन्द काव्य का प्रस्तुत अठारहवाँ प्रबन्ध गुर्जरी राग तथा यति ताल के द्वारा गाया जाता है। हरिरभिसरति वहति मधुपवने अनुवाद- हे मानिनि! देखो, इस समय मन्द-मन्द वासन्ती समीर प्रवाहित हो रहा है, श्रीकृष्ण अभिसार के लिए तुम्हारे संकेत भवन में आ रहे हैं। हे सखि! इससे अधिक बढ़कर और सुख क्या हो सकता है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- अये मानिनी (मानवति राधे) मृदुपवने (मलयमारुते) बहति सति हरि: (कृष्ण:) अभिसरति (संकेतस्थानमायाति); [तस्मात्] माधवे मानं मा कुरु (मधुवंशोद्भर्वे श्रिया महासम्पत्ते: पत्यौ चेति मानानर्हत्वादिति भाव:) [कथं वञ्चकेऽस्मिन् मानो न विधेय इत्याह]- सखि भवने (कृष्णविहीने गृहे) अपरम् (अन्यत्) अधिकसुखं किम् [अस्ति] माधवाभि-सरणादन्यत् सुखं नास्त्येवेति भाव:] ॥1॥
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