गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 349

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:

अष्टदश: सन्दर्भ:

18. गीतम्

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पद्यानुवाद
मन्मथखिन्ने! रतिरसभिन्ने! शोक-विपन्ने राधे!।
हरि चिन्तन रत! सलिल नयनगत! बैठी हो चुप साधे॥
मानिनि! मत अब मान करो।

बालबोधिनी- श्रीराधा श्रीकृष्णोक्त सभी वाक्यों का तिरस्कार करती है, उनके युक्तियुक्त वचनों एवं प्रणत-भाव-समुदाय को छल चातुरी समझकर मन-ही-मन उनके व्यवहार की समालोचना करती है। प्रणय कोप से अनेक प्रकार के आक्षेप लगाती हैं। वे जितना भी प्रणत होते जाते हैं, उनका मान उतना ही बढ़ता जाता है, पुन: स्वकृत कलह को सोच-सोच कर सन्तप्त होती हैं, उद्विग्न होती हैं, केवल हरि की ही चिन्ता करती हैं इस प्रकार श्रीराधा की लहान्तरितावस्था की पाँच विशेषताओं का वर्णन किया गया है।

मन्मथखिन्ना- काम की उद्विग्नता से श्रीराधा को अत्यधिक कष्ट की अनुभूति हो रही है।

रतिरसभिन्ना काम- केलि रस से वञ्चित होने के कारण विषादशालिनी हो रही हैं।

विषादसम्पन्नाम्- सम्भोग के प्रति अनुरक्ति होने के कारण वे भावशबलता की स्थिति तक पहुँच चुकी हैं।

अनुचिन्तितहरिचरितां- वे बार-बार श्रीकृष्ण के चरित्र का ही चिन्तन कर रही थीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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