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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
अथवा कवि ने स्वयं दैन्य प्रकट किया है, तदनुसार इस श्लोक का भावार्थ होगा कि क्या वाणी की शुद्ध कवि जयदेव जानते हैं? नहीं, वे नहीं जानते। उमापति वाणी का विस्तार कर सकते हैं, शरण कवि दुरूह वाक्यों को शीघ्र रचित करने के लिए प्रसिद्ध हैं, आचार्य गोवर्धन के समान कोई कवि हुआ ही नहीं, धोयी कविराज हैं, श्रुतिधर तो श्रुतिधर ही हैं, परन्तु जयदेव कवि कुछ नहीं जानते। रसमञ्जरीकार लक्ष्मण सेन की सभा के पाँच कवियों को ही स्वीकार करते हैं और वे 'श्रुतिधर:' पद को कवि-विशेष की संज्ञा न मानकर उसे धोयी कवि का ही विशेषण मानते हैं। इस विषय में उनका कहना है कि धोयी कवि तो किसी काव्य को एक बार सुनने मात्र से ही उसे कण्ठस्थ कर लेते हैं। वाणी की अधिष्ठात्र देवी सरस्वतीजी ने प्रमाणित किया है कि पूर्वोक्त भावार्थ ही ठीक है। भगवान की लीलाओं के वर्णन के कारण यह रचना समस्त प्रकार के काव्यों में श्रेष्ठ है। यह गीति-काव्य अति महत्त्वपूर्ण, सरस, गोपनीय एवं मधुर है। इस श्लोक में शार्दूल विक्रीड़ित छन्द तथा समुच्चयालंकार है ॥4॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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