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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:
पद्यानुवाद बालबोधिनी- पिछली रात श्रीराधा सब कल्पनाजाल रचती रहीं, विरह में श्रीकृष्ण की बाट जोहती रहीं, श्रीकृष्ण नहीं आये, श्रीराधा विरह से जर्जरित हो गई, विदीर्ण हो गई, रात भर मदमाते वसन्त की बयार की व्यथा का सन्देश-प्रति सन्देश पहुँचाती रहीं। उस वसन्ती रात में दसों दिशाओं से भाँति-भाँति के फूलों की गन्ध और काम के शरों से आहत हो गयीं, संकेतस्थल पर विलाप करती रहीं, मिलने के सपने देखती रहीं, मिलन की स्मृतियों में खोयी रहीं। कैसा अज विरह, इतने में ही प्रात:काल हो गया। कैसी बिडम्बना है कि मानिनी नायिकाओं का मान अपने प्रियतम के समक्ष और भी अभिवर्द्धित हो जाता है। श्रीकृष्ण उनके सामने उपस्थित होकर प्रणाम करते हुए अत्यधिक अनुनय करने वाले, प्रणतमान होकर सान्त्वना देने लगे, उनके कोप को दूर करने का प्रयास करने लगे, परन्तु काम-पीड़ा से जर्जरिता श्रीकृष्ण के शरीर में सम्भोग का चिह्न देखकर वे और भी अधिक अधीर हो गयीं। श्रीराधा के चरणों में श्रीकृष्ण का झुकना प्रेम की पराकाष्ठा है, श्रीराधा के प्राण कण्ठगत हैं, प्रिय के दर्शन से ही श्रीराधा में असूया भाव प्रवाहित होने लगा और वे कहने लगीं-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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