गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 318

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ:

16. गीतम्

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रिपुरिव सखी-संवासो यं शिखीव हिमानिलो
विषमिव सुधारश्मिर्यस्मिन्र दुनोति मनोगते।
हृदयमदये तस्मिन्नोवं पुनर्वलते बलात्-
कुवलय-दृशां वाम: कामो निकामनिरंकुश: ॥2॥ [1]

अनुवाद- हे सखि! सखियों का सुखमय साथ, शत्रु के समान मेरे मन को शत्रु की भाँति अनुभूत हो रहा है, सुशीतल सुमन्द समीरण हुताशन के समान प्रतीत हो रहा है और सुधा-रश्मियाँ विष के समान मुझे कष्ट दे रही हैं, फिर भी मेरा हृदय बलात् उसी में लगा हुआ है, सत्य है, कुवलय सदृश कामिनियों के प्रति काम सर्वथा ही निरंकुश हुआ करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अथ अनुरागहीने दयिते सानुरागं चित्तं निन्दति]-तस्मिन् (श्रीहरौ) मनोगते (चित्तारूढ़े) [सति] अयं सखीसंवास: (सखीभि: संवास: सहवास:) रिपुरिव (शत्रुरिव) [स्वच्छन्दगमन-प्रतिरोधकत्वात्] दुनोति (क्लिश्नाति); हिमानिल: (शीतलवायु:) [तापकत्वात्] शिखीव (अग्निरिव) [दुनोति]; सुधारश्मि: (चन्द्र:) [दाहकत्वात्] विषमिव [मम मन:] [दुनोति]; [यदि] अदये (दयाहीने) तस्मिन् कान्ते एवं पुन: नानारूपेण कार्यमाणमपि हृदयं वलात् वलते (संभक्तं स्यात्), [तर्हि] कुवलयदृशां (नीलोत्पलाक्षीणां कामिनीनां) काम: (अभिलाष:) निकाम-निरंकुश: (अत्यर्थमयन्त्रित:; हिताहितविचारापगमात् दुर्निवार इत्यर्थ:) [अतएव] वाम: (प्रतिकूलएव) ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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