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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
अथ षोड़ष: सन्दर्भ:
16. गीतम्
रिपुरिव सखी-संवासो यं शिखीव हिमानिलो अनुवाद- हे सखि! सखियों का सुखमय साथ, शत्रु के समान मेरे मन को शत्रु की भाँति अनुभूत हो रहा है, सुशीतल सुमन्द समीरण हुताशन के समान प्रतीत हो रहा है और सुधा-रश्मियाँ विष के समान मुझे कष्ट दे रही हैं, फिर भी मेरा हृदय बलात् उसी में लगा हुआ है, सत्य है, कुवलय सदृश कामिनियों के प्रति काम सर्वथा ही निरंकुश हुआ करता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [अथ अनुरागहीने दयिते सानुरागं चित्तं निन्दति]-तस्मिन् (श्रीहरौ) मनोगते (चित्तारूढ़े) [सति] अयं सखीसंवास: (सखीभि: संवास: सहवास:) रिपुरिव (शत्रुरिव) [स्वच्छन्दगमन-प्रतिरोधकत्वात्] दुनोति (क्लिश्नाति); हिमानिल: (शीतलवायु:) [तापकत्वात्] शिखीव (अग्निरिव) [दुनोति]; सुधारश्मि: (चन्द्र:) [दाहकत्वात्] विषमिव [मम मन:] [दुनोति]; [यदि] अदये (दयाहीने) तस्मिन् कान्ते एवं पुन: नानारूपेण कार्यमाणमपि हृदयं वलात् वलते (संभक्तं स्यात्), [तर्हि] कुवलयदृशां (नीलोत्पलाक्षीणां कामिनीनां) काम: (अभिलाष:) निकाम-निरंकुश: (अत्यर्थमयन्त्रित:; हिताहितविचारापगमात् दुर्निवार इत्यर्थ:) [अतएव] वाम: (प्रतिकूलएव) ॥2॥
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