गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 307

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ:

16. गीतम्

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बालबोधिनी- इस अष्टपदी में श्रीराधा की ईर्षा और भी ज्वलित हो उठी है। वह सखी से कहती हैं हे- सखि! श्रीकृष्ण के नयनयुगल इन्दीवर (नीलकमल) के समान चंचल हैं, मानो दक्षिण पवन से संचालित हो रहे हों। वे श्रीकृष्ण जिसे रमण-सुख दे रहे हैं और स्वयं रमित हो रहे हैं, वह मेरी तरह किसलय के सेज पर भी क्यों झुलसेगी? कैसे हृदय टूट जाता है, तार-तार हो जाता है, यह तो मैं जानती हूँ। इस तरह प्रस्तुत श्लोक में श्रीराधा श्रीकृष्ण के सुरत-सौशील्य का वर्णन कर उनकी स्तुति करती है।

निन्दापरक अर्थ यह हो सकता है कि वन-लक्ष्मी की शोभा का आनन्द लेने में लीन, संभोगपराङ्मुख वनमाली श्रीकृष्ण उस गोपी के साथ रमण नहीं कर सके। उनके नेत्र वायु के द्वारा नीलकमल के समान चञ्चल हो रहे थे। इन नेत्रों के द्वारा उपभुक्त होने से वह गोपिका किसलय-रचित शय्या पर शयन करने मात्र से ही सन्तप्त नहीं की गयी क्या? अवश्य ही की गयी। अथवा नील कमल के समान जिसके नेत्र हैं, ऐसी गोपी उन अन्यमनस्क, इधर-उधर दूसरी प्रिया को देखने वाले श्रीकृष्ण के द्वारा अवश्य ही सन्तप्ता हुई है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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