गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 306

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ

16. गीतम्

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देशवराडीरागेण रूपकतालेन गीयते।

अनुवाद- गीतगोविन्द काव्य का यह सोलहवाँ प्रबन्ध देशवराड़ी राग तथा रूपक ताल में गाया जाता है।

अनिल-तरल-कुवलय-नयनेन ।
तपसि न सा किसलय-शयनेन ॥
सखि! या रमिता वनमालिना ॥ध्रुवपदम्॥1॥[1]

अनुवाद- पवन के द्वारा सञ्चालित इन्दीवर (कमल) के समान चञ्चल नयन वाले श्रीकृष्ण के द्वारा जो वरयुवती रमिता हुई है, उसे किसलय शय्या पर शयन करने से किसी ताप का अनुभव नहीं हुआ होगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [तद्रगुणैरन्यस्या: सुखं वर्णयन्ती स्वस्यास्तदलाभात् निर्वेदेन श्लोकार्थमेव निश्चिनोतिज]- सखि, या, अतिल-तरल-कुवलय-नयनेन (अनिलेन वायुना तरले चञ्चले ये कुवलये नीलोत्पले तद्वत् नयने यस्य तेन) [उत्पलवत् शैत्यगुणेन तापोपशमनादिति भाव:] वनमालिना रमिता (विविध-सम्भोग-केलिभिर्नन्दिता) सा किशलयशयनेन (पल्लवशयनेन) न तपति (सन्तापं न गच्छति सुखयत्येवेत्यर्थ:)। [एवं सर्वत्र योजनीयम्] पक्षे या अरमिता सा किशलयशयने (पल्लवशय्यायां) न तपति इति न अपि तु तपत्येव [अतीवोद्दीपकत्वात् तस्य] ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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