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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
पंचदश: सन्दर्भ
15. गीतम्
बालबोधिनी- श्रीकृष्ण के न आने पर इस विषण्णवदना दूती को ही हेतु मानकर अत्यन्त विरह-व्यथा के साथ अपनी उत्कण्ठा प्रकट करती हुई रहती है। सखी ने श्रीराधा से कहा हे सखि राधे! उन अनेक प्रेयसियों वाले को मैंने बहुत बुलाया, पर वे निर्दय आये ही नहीं। श्रीराधा ने प्रत्युत्तर में कहा- हे दूति! यदि वे शठ और धूर्त आये ही नहीं, तो इसमें तुम्हारा क्या दोष है? तुम दु:खी क्यों हो रही हो? तुमने अपना दौत्य-कर्म बहुत अच्छी प्रकार से कर दिया। दूती ने कहा- मैं इसलिए दु:खी हो रही हूँ कि मैं उन्हें ला नहीं सकी। वे बहुबल्लभा हैं, उनकी अनेक प्रेयसियाँ हैं, वे स्वच्छन्द हैं, जहाँ मन चाहे, वहीं रमण करते हैं। पुन: श्रीराधा ने कहा तब तुम्हारा क्या दोष है? अब तुम देखना, मेरा चित्त उनके गुणों से आकर्षित होकर उनसे मिलने के लिए असहनीय वेदना से फट रहा है और इस पीड़ा का प्राण बनकर उन तक पहुँच जायेगा। कैसा चित्त है- स्वत: सिद्धरूप से श्रीकृष्ण के गुणों से आकृष्ट। 'उत्कण्ठार्तिभराद्र' से तात्पर्य है, प्रियमिलन की इच्छा-पीड़ा के भार से विदीर्ण चित्त। मेरे द्वारा रोके जाने पर भी रुकेगा नहीं। उनके पास पहुँचेगा ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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