गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 304

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

पंचदश: सन्दर्भ

15. गीतम्

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बालबोधिनी- श्रीकृष्ण के न आने पर इस विषण्णवदना दूती को ही हेतु मानकर अत्यन्त विरह-व्यथा के साथ अपनी उत्कण्ठा प्रकट करती हुई रहती है। सखी ने श्रीराधा से कहा हे सखि राधे! उन अनेक प्रेयसियों वाले को मैंने बहुत बुलाया, पर वे निर्दय आये ही नहीं। श्रीराधा ने प्रत्युत्तर में कहा- हे दूति! यदि वे शठ और धूर्त आये ही नहीं, तो इसमें तुम्हारा क्या दोष है? तुम दु:खी क्यों हो रही हो? तुमने अपना दौत्य-कर्म बहुत अच्छी प्रकार से कर दिया। दूती ने कहा- मैं इसलिए दु:खी हो रही हूँ कि मैं उन्हें ला नहीं सकी। वे बहुबल्लभा हैं, उनकी अनेक प्रेयसियाँ हैं, वे स्वच्छन्द हैं, जहाँ मन चाहे, वहीं रमण करते हैं। पुन: श्रीराधा ने कहा तब तुम्हारा क्या दोष है? अब तुम देखना, मेरा चित्त उनके गुणों से आकर्षित होकर उनसे मिलने के लिए असहनीय वेदना से फट रहा है और इस पीड़ा का प्राण बनकर उन तक पहुँच जायेगा। कैसा चित्त है- स्वत: सिद्धरूप से श्रीकृष्ण के गुणों से आकृष्ट।

'उत्कण्ठार्तिभराद्र' से तात्पर्य है, प्रियमिलन की इच्छा-पीड़ा के भार से विदीर्ण चित्त। मेरे द्वारा रोके जाने पर भी रुकेगा नहीं। उनके पास पहुँचेगा ही।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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