गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 303

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

पंचदश: सन्दर्भ

15. गीतम्

Prev.png

नायात: सखि! निर्दयो यदि शठस्त्वं दूति! किं दूयसे?
स्वच्छन्दं बहुवल्लभ: स रमते, किं तत्र ते दूषणम्?
पश्याद्य प्रिय-संगमाय दयितस्याकृष्यमाणं गुणै
रुत्कण्ठार्तिभरादिव स्फुटदिदं चेत: स्वयं यास्यति ॥1॥[1]
इति पञ्चदश: सन्दर्भ:।

अनुवाद-

सखी- हे सखि राधे! वे नहीं आये।

श्रीराधा- वे निर्दय, निष्ठुर, शठ यदि नहीं आये तो तुम दु:खी क्यों हो रही हो?

सखी- वे बहुवल्लभा हैं, स्वच्छन्दतापूर्वक रमण करते हैं।

श्रीराधा- इसमें तुम्हारा क्या दोष है? देखो, आज मेरा मन उस प्राणकान्त प्रियतम श्रीकृष्ण के गुणों से आकृष्ट होकर तथा उत्कण्ठा के भार से विदीर्ण होकर उनसे मिलने के लिए स्वयं ही जायेगा।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- इदानीं विषण्णवदनां सखीं सनिर्वेदमाहज सखि, निर्दय: (दयाहीन:) शठ: (धूर्त्त: अन्तरन्यत् बहिरन्यत्कारीत्यर्थ:) यदि न आयात: हे दूति, त्वं किं (कथं) दूयसे (दु:खितासि)? बहुवल्लभ: (बह्न्य: वल्लभ्य: प्रेयस्य: यस्य स: कृष्ण) स्वच्छन्दं (नि:शंक) रमते तत्र ते (तव) दूषणं किं (को दोष:); [इत्थं सखीमनूद्य निर्वेदभंग्या आत्मनो दशमीदशामाह]-पश्य अद्य (इदानीं) दयितस्य (कृष्णस्य) गुणै: (सौन्दर्यादिभि:) [रज्जुभिश्चेति ध्वनि:; यथा कश्चित् रज्वाकृष्ट: सन् याति तद्वत्] आकृष्यमाणम् इदं (तदप्राप्तितापोद्धनितधैर्यं) मम चेत: (चित्तम्) उत्कण्ठार्त्तिभरादिव (उत्कण्ठा औत्सुक्यम् आर्त्ति: पीड़ा च तयो: भरात् आधिक्यात् हेतो:) स्फुटत् इव (विदलदिव) स्वयं यास्यति ॥1॥

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः