गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 297

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

पंचदश: सन्दर्भ

15. गीतम्

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चरण-किसलये कमला-निलये नख-मणिगण-पूजिते।
बहिरपवरणं यावक-भरणं जनयति हृदि योजिते
रमते यमुना-पुलिन वने..... ॥6॥[1]

अनुवाद- उस नितम्बिनी के अरुण मनोहरश्री से सम्पन्न एवं नखरूपी मणियों से विभूषित पद-पल्लवों को नखक्षत एवं मणियों से समलंकृत एवं लक्ष्मी के वासस्थल अपने हृदय पर स्थापित करते हुए बड़े यत्न से आवरण-आच्छादन करते हुए जावक-रस से रञ्जित कर रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- हृदि (वक्षसि) योजिते (विनिहिते) कमला-निलये (कमलाया: सौन्दर्याधिदेवताया: श्रिया: निलये आवासे) नखमणिगण-पूजिते (नखा एव मणिगणा: तै: पूजिते अर्चिते) चरणकिशलये (पादपल्लवे) यावक-भरणं (यावकं अलक्तकमेव भरणम् आभरणं) बहिरपवरणं (बहिरावरणं) जनयति (करोति) [श्रीनिवासस्य मणियुतस्य च बहिरावृतिर्युक्तैवेत्यर्थ:] [यद्वा कमलानिलये हृदि इत्येवमन्वय: कार्य:] ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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