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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
पंचदश: सन्दर्भ
15. गीतम्
पद्यानुवाद बालबोधिनी- श्रीराधा कह रही हैं कि नख के अर्द्धचन्द्राकार चिह्नों से विभूषित उस रमणी के वक्षस्थल पर मणियों की मालारूप तारासमूह विन्यस्त कर रहे हैं। आकाश तथा स्तनद्वय में एक विचित्र ही मनोरम अन्विति है। कुचयुगगगने- दोनों स्तन उस प्रकार विस्तृत हैं, जैसे आकाश विस्तृत होता है। आकाश के बिम्ब से स्तनों के पीनत्व की प्रतीति करायी गयी है। सुघने परस्पर सन्निहित उस नायिका के स्तन अति कठोर हैं, जैसे आकाश सघन सुन्दर बादलों से युक्त होता है। मृगमदरुचिभूषिते- सुरतजन्य श्रम के कारण स्तनों पर स्वेदविन्दु क्षरित होते हैं, तब उन्हें सुखाने के लिए कस्तूरी के चूर्ण को मला जाता है, गगन भी तो कस्तूरीवत नील कान्तियुक्त होता है। तारकपटलं नखपद शशिभूषिते- उस सुकेशी के कुच युगलरूपी गगन में तारों के समुदाय सदृश मुक्ता सरोवर परिलक्षित हो रहा है। उसमें श्रीकृष्ण के नखों के अग्रभाग के आघात से विभूषित चिह्न अर्द्धचन्द्राकार की शोभा को प्राप्त हो रहे हैं। उसके स्तनमण्डल को श्रीकृष्ण मोतियों की मालारूपी ताराओं से सजा रहे हैं। ये सम्पूर्ण उपमान एक सुन्दर बिम्ब-योजना है। तिलक मृग है, ललाट चन्द्रमा है और केशपाश अभयारण्य बन गया है। कुरुवक के फूल बिजली की चमक एवं वक्षस्थल आकाश हो गया है। नख-क्षत चन्द्रमा एवं छोटी-छोटी मणियाँ ताराओं के रूप में सुशोभित हुई हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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