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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
पंचदश: सन्दर्भ
15. गीतम्
घटयति सुधने कुच-युग-गगने मृगमद-रुचिरुषिते। अनुवाद- उस सुकेशी के गाढ़ नीलवर्णा कस्तूरी की धूलि से रुषित (विलेपित) परस्पर नितान्त सन्निहित विशाल कुचयुग-मण्डलरूप गगन जो अर्द्धचन्द्राकार नखक्षत से परिशोभित है, उस पर निर्मल तारक-दल के समान मनोहर मणिमय हार को अर्पित कर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- सुघने (निविड़े शोभनमेघयुक्ते च) नखपद-शशि-भूषिते (नखपदं नखक्षतं तदेव शशी तेन भूषिते) तथा मृगमद-रुचि-रूषिते (मृगमदस्य कस्तूरिकाया: या रुचि: कान्ति: तया रूषिते म्रक्षिते गगनपक्षे कस्तूरीदीप्त्यैव म्रक्षिते) कुचयुग-गगने (कुचयुगमेव वृहत्त्वात् गगनं (तत्र) अमलं (निर्मलम् उज्ज्वलमिति यावत्) मणिसरं (मुक्ताहारं) [एव] तारक-पटलं (नक्षत्रराजिं) घटयति (योजयति) ॥3॥
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