गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 289

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

पंचदश: सन्दर्भ

15. गीतम्

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पद्यानुवाद
यमुन-पुलिन के सघन कुंज में रमते आज मुरारी।
प्रियकी अमर सुहागिनि होकर जीती बाजी हारी॥
रचते मृगमद तिलक पुलक कर मदन-मुदित मुख उसके।
चुम्बन वलित अधर लगते हैं, मधुर रसातुर जिसके॥

बालबोधिनी- श्रीराधा अपनी कल्पनाओं के वितान में प्रलाप करती हुई कहती हैं (विरह में भाव-नेत्रों द्वारा अपनी पूर्व लीला का स्मरण कर उसी का वर्णन करती हैं) इस कामसंग्राम में मधुरिपु मुझे पराभूतकर इस समय निकुंज में विजय-उत्सव मना रहे हैं। श्रीराधा उस काल्पनिक रमणी का स्वरूप बताते हुए कहती हैं कि यमुनापुलिन के वन में श्रीकृष्ण मण्डनादि कला-कौशल के द्वारा उस रमणी के साथ क्रीड़ा कर रहे हैं। उस रमणी के मुख-कमल पर मृगमद से तिलक की रचना कर रहे हैं, जिससे वह अति पुलकित हो रही है। चुम्बन की अभिलाषा से श्रीकृष्ण ने उसका मुख अपने सम्मुख कर लिया है, उसमें काम पूर्ण रूप से उदित हो गया है, श्रीकृष्ण भी अति रोमाञ्चित हो रहे हैं, वे अपने को संभाल नहीं पा रहे हैं, बड़ी कठिनाई से टेढ़ा-मेढ़ा तिलक रच रहे हैं। उसकी शोभा ऐसी हो रही है, मानो चन्द्रमण्डल के ऊपर मृगलाञ्छन हो। उसके अधर एवं मुखमण्डल पर चुम्बन करने से श्रीकृष्ण के अधर-पुटों में उस तिलक का चिह्न अंकित हो गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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