गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 287

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

चतुर्दश: सन्दर्भ

14. गीतम्

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बालबोधिनी- श्रीराधा ने विलाप करते हुए सारी रात बितायी। जब चन्द्रमा को अस्तांचल की ओर जाते देखा, तब अपने प्रति श्रीकृष्ण के पूर्वराग का स्मरण कर अपनी प्रिय सखी से कहने लगी अरे सखि! कितने कष्ट की बात है। यह जो चन्द्रमा है, सन्तप्त व्यक्तियों की विरह-व्यथा को और भी बढ़ा रहा है। अब यह अस्तमित हो रहा है, जिससे मेरा मदनताप तिरोहित हो रहा है। इसके पाण्डुवर्ण को देखकर मुझे श्रीहरि के मुखकमल का स्मरण हो रहा है मेरे विरह में वे कैसे निष्प्राण हो गये होंगे? अन्य प्रकार से अनुमान करती हुई कहती हैं कि श्रीहरि मेरा परित्याग कर किसी दूसरी रमणी के साथ रमण कर रहे हैं, इसलिए उनकी ढलते चन्द्रमा जैसी कान्ति हो गयी है, यही कारण है कि हृदय में सन्ताप और अधिक गहरा गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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