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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
चतुर्दश: सन्दर्भ
14. गीतम्
विरह-पाण्डु-मुरारि-मुखाम्बुजद्युतिरयं तिरयन्नपि वेदनाम्। अनुवाद- प्रिय सखि! मेरे विरह में पाण्डुवर्ण हुए श्रीमुरारी के मुखकमल की कान्ति के समान धूसरित यह चन्द्रमा मेरी मनोव्यथा को तिरोहित कर कामदेव के सुहृदभूत मेरे हृदय में मदन-सन्ताप की अभिवृद्धि कर रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [अथ चन्द्रं पश्यन्ती तं श्रीकृष्णमुखत्वेन उद्भाव्य तत्र अन्यया सह वर्त्तमानस्यापि मद्विरहेण पाण्डुत्वस्फुर्त्त्या स्वस्मिन् तस्य अतिप्रणयितां स्मरन्ती चन्द्रमाक्षिपति]- अये (खेदे) मनोभुव: (कामस्य) सुहृत् (मित्रभूत:) विरहपाण्डु-मुरारि-मुखाम्बुज द्युति: (विरहेण मम विच्छेदेन पाण्डु यत् मुरारे: कृष्णस्य मुखाम्बुजं तस्य द्युतिरिव द्युतिर्यस्य तथाभूत:) [अतएव] वेदनां (सन्तप्तानां मनोव्यथां) तिरयन्नापि (आच्छादयन् निराकुर्वन्नापीत्यर्थ:; चन्द्रदर्शनेन श्रीकृष्णमुखदर्शनजनितानन्दलाभादिति भाव:) अयं विधु: (चन्द्र:) हृदये अतीव मदनव्यथां (कृष्णस्य अदर्शन-जनितामिति भाव:) तनोति (विस्तारयति) [मदन-सुहृत्त्वेन तन्मुखस्मारकतया चन्द्रो मां व्यथयतीत्यभिप्राय:] ॥1॥
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