गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 283

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

चतुर्दश: सन्दर्भ

14. गीतम्

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विपुल-पुलक-पृथु-वेपथु-भंगा।
श्वसित-निमीलित-विकसदनंगा-
कापि मधुरिपुणा... ॥6॥ [1]

अनुवाद- अनंग-रस से पुलकित हो उसके रोमांच एवं कम्प ही उसके तरंग के समान हैं। सघन नि:श्वास एवं नेत्र-निमीलन के द्वारा वह मदन-आवेश प्रकाशित करती होगी।

पद्यानुवाद
विपुल पुलक पृथु वेपथु भंगा।
श्वसित निमीलित उदित अनंगा॥
शोभित है युवती री कोई।
हरिसे विलस रही जो खोई॥

बालबोधिनी- रतिकाल में पुलकावलियों से, कम्पन से, स्वरभंग होने से वह लम्बी-लम्बी श्वासोच्छवास करती होगी, आनन्द प्राप्ति होने पर आँखें मूँद लेती होगी, जिससे उसका काम विकसित होता होगा।

वेपथुभंगा प्रस्तुत श्लोक में रोमाञ्च तथा कम्प को तरंग सदृश इसलिए बताया है कि जिस प्रकार जलाशय में एक के बाद दूसरी तरंग उत्पन्न होती है, उसी प्रकार उसके शरीर में भी रोमांच तथा कम्प उत्तरोत्तर उत्पन्न होते होंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- विपुल-पुलक-पृथु-वेपथु-भंगा (विपुला: पुलका: पृथु: महान् वेपथु: कम्पश्च तेषां भंगा: तरंगा: यस्या: तादृशी) तथा श्वसित-निमीलित-विकसदनंगा (श्वसितेन निमीलितेन च विकसन् आविर्भवन् अनंग: मदन: यस्या: तादृशी) ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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