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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
यदि हरिस्मरणे सरसं मनो अनुवाद - हे श्रोताओं! यदि श्रीहरि के चरित्र का चिन्तन करते हुए आप लोगों का मन सरस अनुरागमय होता है तथा उनकी रास-विहारादि विलास-कलाओं की सुचारु चातुर्यमयी चेष्टा के विषय में आपके हृदय में कुतूहल होता है तो मनोहर सुमधुर मृदुल तथा कमनीय कान्तिगुण वाले पद समूह युक्त कवि जयदेव की इस गीतावली को भक्ति-भाव से श्रवणकर आनन्द में निमग्न हो जाएँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- यदि हरिस्मरणे (श्रीकृष्णचिन्तने) मन: सरसं (रसवत्, स्निग्धमिति यावत्) [कर्त्तुमिच्छे:]; [तथा] यदि विलासकलासु [गतिस्थानासनादीनां मुखनेत्रादिकर्मणाम्। तात्कालि-कन्तु वैशिष्ट्यं विलास: प्रिरसंगजम्॥ इत्युज्ज्वलनीलमणि:। तात्कालिकं दयितालोकनादिभवम्।] (श्रीकृष्ण रतिप्रसंगेषु रास- कुञ्जादिलीलाया: कलासु वैदग्धीचारुचेष्टासु इत्यर्थ:) कुतूहलं (कौतुकं) [स्यात्र], तदा (तर्हि) मधुरकोमलकान्तपदावलीं श्रृंगाररस प्राधान्यात मधुरा माधुर्यगुण युक्ता: कोमला: सरसा: तथा गेयत्वात कान्ता: मनोज्ञा: पदानाम् आवल्य: पङ्क्तय: यस्यां तादृशीं) जयदेव-सरस्वतीं (जयदेववाणीं तत्कृतप्रबन्धमिति यावत्) श्रृणु॥3॥
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