गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 278

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

चतुर्दश: सन्दर्भ

14. गीतम्

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पद्यानुवाद
स्मर-समरोचित-विरचित-वेशा।
गलित-कुसुम-वर-विलुलित-केशा
शोभित है युवती री कोई।
हरि से विलस रही जो खोई॥

बालबोधिनी- आशंकिता श्रीराधा सखी से कहती हैं हे सखि! मुझसे भी अधिक कोई सुन्दर रमणी काम-संग्राम के अनुकूल वेश धारण कर मधुरिपु के साथ विलास कर रही है। रतिक्रीड़ा में उसके केशपाश ढीले होकर इधर-उधर लहरा रहे हैं, उसमें से ग्रंथित पुष्प भी झर गये हैं।

मधुरिपु श्रीकृष्ण माधुर्य के शत्रु हैं, उनको माधुर्य का भान ही नहीं है। इसलिए वे मेरी उपेक्षा करके किसी दूसरी युवती के साथ रतिविलास में लिप्त हैं।

युवतिरधिकगुणा- वह व्रजरमणी मुझसे भी अधिक गुणशालिनी है, पर यह तो संभव ही नहीं है। अधिक गुणों का व्यंगार्थ है- कम गुणों वाली युवती रमण कर रही है, यह बड़े आश्चर्य की बात है। इससे विपरीत रति सूचित होती है। विपरीत रति में युवती का ही रतिकर्तृत्व रहता है।

स्मरसमर-रतिकेलि को स्मर-समर कहा गया है। रतिक्रीड़ा में रति-विमर्दन आदि क्रिया होती है, जिससे नायिका का कबरी बन्धन खुल जाता है, उसमें सन्निहित पुष्प झर जाते हैं, विशृंखलित हो जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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