गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 267

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

त्रयोदश: सन्दर्भ

13. गीतम्

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मामहह विधुरयति मधुर-मधु-यामिनी।
कापि हरिमनुभवति कृत-सुकृत-कामिनी
यामि हे! कमिह... ॥4॥ [1]

अनुवाद- ओह! यह कैसा दुर्भाग्य है मेरा। यह सुमधुर वसन्त की रात्रि मुझको विरह-वेदना से अधीर कर रही है और उधर ऐसे समय में निश्चित ही कोई कामिनी अपने पुण्य के फलस्वरूप परम सुख से श्रीकृष्ण के साथ रतिसुख का अनुभव कर रही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अहह (खेदे मधुर-मधुयामिनी) (मधुरा मनोहारिणी मधुयामिनी वासन्ती रात्रि:) मां विधुरयति (व्याकुली करोति; या वासन्ती निशा दूरस्थमपि प्रियं संगमयति, सैव सुकृताभावात् मां विधुरयतीति भाव:)। कापि कृतसृकृत-कामिनी (कृतंसुकृतं यया तादृशी कामिनी भाग्यवती रमणी) हरिम् अनुभवति (तेन सह रह:केलिसुखमनुभवतीत्यर्थ:) ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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