गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 26

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

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पद्यानुवाद-

चारु चरित 'वाणी' के चिन्तित मन-मन्दिर में जिसके,
पद्मावती चरण-चारण से अंग-अंग सिहरे जिसके।
कवि जयदेव रचित है (जिसकी मति-गति अति तल्लीना)
वासुदेव-श्री-केलि-कथामय, यह प्रबन्ध रस-भीना॥2॥

बालबोधिनी - पूर्वश्लोक में एक पद के द्वारा सूचित श्रीराधामाधव की लीला स्फूर्त्ति प्राप्त होने से श्रीजयदेवजी का हृदय अतिशय आनन्द से परिप्लुत हो गया है। उस आनन्द राशि के प्लावन से प्लावित होकर महान करुणा के पारावार कवि-चक्रवर्त्ती श्रीजयदेव जी भक्तों पर अनुग्रह प्रकाश करते हुए अपने प्रबन्ध काव्य में अपनी समर्थता 'वाग्रदेवता' इति श्लोक के द्वारा अभिव्यक्त करते हुए कह रहे हैं-

जयदेव: - जय अर्थात सर्वोत्कर्षता, देव अर्थात द्योतयति प्रकाशयति प्रकाश करते हैं। तात्पर्य यह है कि जो अपनी भक्ति के द्वारा श्रीकृष्ण की लीला की सर्वश्रेष्ठता प्रकाशित करते हैं, ऐसे श्रीजयदेवजी। साथ ही यह गीतगोविन्द नामक प्रबन्धकृति प्रकृष्ट रूप से श्रोताओं के हृदय को आकर्षित करती है अथवा प्रकृष्ट रूप से कृष्ण लीला संसार-बन्धन मुक्त कर भक्तजनों के हृदय में उदित होती है।

अब प्रश्न होता है कि ग्रन्थ में श्रोताओं के हृदय को आकर्षित करने की क्षमता कहाँ से आई? इसके उत्तर में कहा है कि श्रीवासुदेव रतिकेलि कला समेतम। यहाँ 'श्री' शब्द से राधा का तथा वसुदेव के पुत्र रूप में अवतीर्ण सम्पूर्ण जगत के स्वामी एवं आत्मास्वरूप भगवान श्रीकृष्ण की रति केलि-कथा का वर्णन है। वासुदेव अर्थात वसुवंश को प्रकाशित अथवा उज्ज्वल करने वाले वसुदेव अर्थात्र श्रीनन्दमहाराज जो वसुओं में प्रवर (सर्वश्रेष्ठ) हैं, ऐसे श्रीनन्दजी के पुत्र वासुदेव श्रीकृष्ण हैं। अत: इन दोनों की केलि कथाओं से परिपूर्ण लीलाओं के वर्णन से श्रीजयदेव कवि के हृदय में ऐसी क्षमता प्रकटित हुई।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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