गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 259

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

षष्ठ: सर्ग:
धृष्ट-वैकुण्ठ:

द्वादश: सन्दर्भ

12. गीतम्

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किं विश्राम्यसि कृष्ण-भोगि-भवने भाण्डीर-भूमीरुहे।
भ्रातर्याहि न दृष्टि-गोचराभित: सानन्द-नन्दास्पदम्
राधाया वचनं तदध्वग-मुखानन्दान्तिके गोपतो।
गोविन्दस्य जयति सायमतिथि-प्राशस्त्य-गर्भा गिर:?[1]

इति श्रीगीतगोविन्दे द्वादश: सन्दर्भ:।

इति श्रीगीतगोविन्दे महाकाव्ये वासकसज्जावर्णने धृष्ट-वैकुण्ठो नाम षष्ठ: सर्ग:॥

अनुवाद- श्रीराधा ने सखी का विलम्ब देखकर श्रीकृष्ण के समीप बहाना बनाकर एक दूती को भेजा। उस दूती ने सायंकाल पथिक वेश में श्रीकृष्ण के समीप आकर श्रीराधा के द्वारा दिये हुए इन संकेत वाक्यों को कहा "श्रीराधा के घर में अतिथि बनने पर उन्होंने मुझसे कहा कि हे भ्रात! इस भाण्डीर वृक्ष के तले विश्राम क्यों कर रहे हो? यहाँ तो श्रीकृष्ण (काल) सर्प रहता है। सामने ही दृष्टिगोचर होने वाले आनन्दप्रद नन्दालय में चले जाओ। तुम वहाँ क्यों नहीं जा रहे हो?" कहीं उनके पिता श्रीनन्द महाराज इन बातों का भावार्थ समझ न लें, इसलिए श्रीकृष्ण उनसे गोपन करने के लिए श्रीराधा जी के द्वारा प्रेरित दूत को जो धन्यवाद दिया है, वे वाणियाँ जय युक्त हों।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [इदानीं कवि: एतद्वर्णन-व्याकुल: तस्य अभिसारात् पूर्वचरितं कथयन् सर्गान्ते आशिषं प्रयुङ्क्ते]- हे भ्रात: (पथिक!) कृष्णभोगि भवने (कृष्णसर्पस्य आश्रयस्थाने पक्षे सम्भोगविशिष्टस्य श्रीकृष्णस्य भवने विहरणस्थाने) भाण्डीर-भूमीरुहे (भाण्डीर-वृक्षे लक्षणया तदीयतले इत्यर्थ:) किं (कथं) विश्राम्यसि (विश्रामं माकुरु इत्यर्थ:) तर्हि इदानीं क्व यामि इत्यत आह]- इत: (अस्मात् स्थानात्) दृष्टिगोचरं (इतो दृश्यते इति भाव:) सानन्द-नन्दास्पदं (आनन्देन सह वर्त्तमानं नन्दस्य आस्पदं गृहं; पक्षे उत्सवपूर्णमानन्दनिकेतनं) किं (कथं) न यासि [येन तव शंका न भवेदिति भाव:]। राधाया: तत् (एतत्र) वचनम् (सप्रेतवाक्यम्) अध्वग-मुखात् (पथिकवदनात्, पथिक-वेशिन्या दूत्या मुखादिति भाव:) नन्दान्ति के (नन्दसमीपे) गोपत: (गोपयत:) गोविन्दस्य सायं (सन्ध्यासमये) अतिथि-प्राशस्त्य-गर्भा (अतिथेस्तस्यैव प्राशस्त्यं प्रशंसादिरूपं तदेव गर्भोऽभिप्रायो यासां ता:) गिर: (वाच:) जयन्ति (श्रीराधाया मनोरथं पूरयन्ति) अतएव धृष्ट: प्रगल्भो वैकुण्ठो यत्र इत्यायं सर्ग: षष्ठ:]॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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