गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 256

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

षष्ठ: सर्ग:
धृष्ट-वैकुण्ठ:

द्वादश: सन्दर्भ

12. गीतम्

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पद्यानुवाद
विपुल पुलक तन, अतुल ललक मन,
मयान सुरति सुख-लीना।
मिलन कल्पना रस-सागर में
डूब रही मति दीनान

बालबोधिनी- श्रीराधा के प्रेमोन्माद का कन्दर्पोन्माद का चित्रण करती हुई सखी कहती है हे शठ! हे धूर्त! हे कपटी! वह मृगनयनी राधिका तुम्हारे संश्लेष-आश्लेष के रस-सिन्धु में डूबती हुई ध्यान-परायण हो गयी है, तुम्हारे ध्यान में मग्न हो गयी है। उनको प्रतीत होता है कि तुमने उसे आलिंगित कर रखा है। इसलिए उनके शरीर के रोम-रोम में आनन्द हो गया है। आनन्दातिशयता के कारण वह विपुल रोमाञ्चित हो गयी है और सिसकारती हुई अन्तर-जाड्य के कारण कुछ-कुछ अस्फुट बोलती है, अपने भीतर काम के तीव्र आवेश को समेटे वह आनन्द-जलधि में डूब-उतर रही है।

प्रस्तुत श्लोक में मालिनी छन्द तथा रसवदलंकार है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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