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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
षष्ठ: सर्ग:
धृष्ट-वैकुण्ठ:
द्वादश: सन्दर्भ
12. गीतम्
भवति विलम्बिनि विगलित-लज्जा। अनुवाद- जब श्रीराधा को बाह्यज्ञान होता है कि आप वह नहीं हैं, आप आने में देर कर रहे हैं, तो वह वासकसज्जा श्रीराधा लाज खोकर विलखने लगती हैं, रोने लगती हैं। पद्यानुवाद बालबोधिनी- श्रीराधा वासकसज्जा नायिका के रूप में यहाँ निरूपित हुई हैं। जब श्रीराधा यह जान लेती हैं कि मैं जिसको आलिंगनकर चूम रही हूँ, वह श्रीकृष्ण नहीं प्रत्युत घना अन्धकार है तो वह अपने कृत्य पर लज्जित हो रोने-कलपने लगती हैं। उनकी बेसुधी ऐसी है कि आसपास के प्रसार को ही वह वर्ण-भ्रान्ति से अपना प्रियतम मान लेती हैं। और फिर मेरे प्रियतम अभी तक क्यों नहीं आये कहकर बिलखने लगती हैं। वासकसज्जा जो नायिका संकेत-कुञ्ज में उपस्थित होकर बड़े उत्साह से नायक की प्रतीक्षा करती हुई कुञ्ज को और उसमें पुष्प-शय्या को तथा स्वयं को सजाती हैं तथा नायक के पास बारम्बार दूती को भेजती हैं, उसे वासकसज्जा नायिका कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- पुनस्तदपगमे भवति (त्वयि) विलम्बिनि (कृतविलम्बे) वासकसज्जा (वासक-सज्जावस्थां प्राप्ता; सज्जित-विलासगृहा इत्यर्थ:) [सा] विगलित-लज्जा (विगलिता लज्जा यस्या: तादृशी सती) विलपति रोदिति च ॥7॥
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