गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 253

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

षष्ठ: सर्ग:
धृष्ट-वैकुण्ठ:

द्वादश: सन्दर्भ

12. गीतम्

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भवति विलम्बिनि विगलित-लज्जा।
विलपति रोदिति वासक-सज्जा
नाथ हरे! सीदति... ॥7॥ [1]

अनुवाद- जब श्रीराधा को बाह्यज्ञान होता है कि आप वह नहीं हैं, आप आने में देर कर रहे हैं, तो वह वासकसज्जा श्रीराधा लाज खोकर विलखने लगती हैं, रोने लगती हैं।

पद्यानुवाद
लख विलम्ब वह वासकसज्जा,
लज्जा खो तन-छीनी।
रोती और विलपती रहती,
कवि 'जय' की यह वाणी

बालबोधिनी- श्रीराधा वासकसज्जा नायिका के रूप में यहाँ निरूपित हुई हैं। जब श्रीराधा यह जान लेती हैं कि मैं जिसको आलिंगनकर चूम रही हूँ, वह श्रीकृष्ण नहीं प्रत्युत घना अन्धकार है तो वह अपने कृत्य पर लज्जित हो रोने-कलपने लगती हैं। उनकी बेसुधी ऐसी है कि आसपास के प्रसार को ही वह वर्ण-भ्रान्ति से अपना प्रियतम मान लेती हैं। और फिर मेरे प्रियतम अभी तक क्यों नहीं आये कहकर बिलखने लगती हैं।

वासकसज्जा जो नायिका संकेत-कुञ्ज में उपस्थित होकर बड़े उत्साह से नायक की प्रतीक्षा करती हुई कुञ्ज को और उसमें पुष्प-शय्या को तथा स्वयं को सजाती हैं तथा नायक के पास बारम्बार दूती को भेजती हैं, उसे वासकसज्जा नायिका कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- पुनस्तदपगमे भवति (त्वयि) विलम्बिनि (कृतविलम्बे) वासकसज्जा (वासक-सज्जावस्थां प्राप्ता; सज्जित-विलासगृहा इत्यर्थ:) [सा] विगलित-लज्जा (विगलिता लज्जा यस्या: तादृशी सती) विलपति रोदिति च ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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