गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 251

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

षष्ठ: सर्ग:
धृष्ट-वैकुण्ठ:

द्वादश: सन्दर्भ

12. गीतम्

Prev.png

त्वरितमुपैति न कथमभिसारम्।
हरिरिति वदति सखीमनुवारम्
नाथ हरे! सीदति... ॥5॥[1]

अनुवाद- बार-बार अपनी सखी से पूछती हैं सखि! श्रीकृष्ण अभिसरण के लिए शीघ्र ही क्यों नहीं आते?

पद्यानुवाद
बार-बार कहती है 'सखि!
कब आयेंगे वनमाली?'

बालबोधिनी- सखी श्रीकृष्ण से कहती है हे श्रीकृष्ण! कभी-कभी तो ऐसा होता है कि श्रीराधा बार-बार मेरे सामने आती हैं और यही पूछती हैं श्रीहरि इस संकेत स्थान पर मुझसे मिलने के लिए त्वरित क्यों नहीं आते?

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- पुन: स्फूर्त्त्यपगमेतु आत्मानं पृथंमत्वा] हरि: कथं त्वरितम् अभिसारं (संकेतस्थानं) न उपैति (आगच्छति) इति अनुवारं (पुन: पुन:) सखीं (मां) वदति (पृच्छति) ॥5॥

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः