गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 240

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:

एकादश: सन्दर्भ

11. गीतम्

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तत्पश्चात् परस्पर दोनों एक दूसरे के साथ रतिक्रीड़ा के लिए तत्पर होते हैं। इस क्रीड़ा में उन्हें विस्मय-प्रधान अद्भुत रस की सुखानुभूति होती है। तत्पश्चात् कामोद्बोध होने पर नाना विलासों से विलसित हो परस्पर हास्य प्रधान बातें करते हैं और तब रतिक्रीड़ा में लिप्त होने पर दोनों को हास्य रस अनुभूत होता है। सुरत-क्रीड़ा सम्पन्न होने पर जब वे परस्पर आनन्द का अनुभव करते हैं, तब उन्हें सकल-रस-चक्रवर्ती रसराज श्रृंगार रस की मधुरानुभूति होती है। इस प्रकार तिमिर में मिलित पहले अनजान, फिर परस्पर पहचान लिये जाने पर दोनों को लज्जा होती है, परन्तु परस्पर दोषारोपण अथवा क्रोध नहीं करते, क्योंकि दोनों का समान दोष होता है। अत:पर नायक-नायिकाओं को अन्धकार में लज्जामिश्रित सम्पूर्ण रसों का अनुभव होता है। राधे! तुम्हें ऐसी प्रतीति होगी कि अहो! इतने दिनों के पश्चात् जब हम दोनों मिले, तब इतने गहरे श्रृंगार रस में क्यों डूबे?

प्रस्तुत सन्दर्भ में चौर्यरत के सम्पूर्ण क्रम को भी बतलाया गया है। भरतमुनि ने कहा है-

आश्लेषचुम्बननखक्षतकामबोधशीघ्रत्वमैथुनमनन्तसुखप्रबोधम् ।
प्रीतिस्ततोऽपि रसभावनमेव कार्यमेवं नितान्तनतुरा: सुचिरं रमन्ते

प्रस्तुत श्लोक में दीपक, समुच्चय तथा भ्रान्तिमान अलंकार द्रष्टव्य हैं। शार्दूलविक्रीड़ित छन्द है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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