गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 239

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:

एकादश: सन्दर्भ

11. गीतम्

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बालबोधिनी- सखी श्रीराधा को प्रलोभन दे रही है कि हे सखी राधिके! वहाँ श्रीकृष्ण के समीप पहुँचने पर तुम्हें अनेक प्रकार का केलि-कौतुक प्राप्त होगा इस कथन से सखी श्रीराधा की उत्कण्ठा बढ़ाकर उन दोनों के मनोरथ का अभिव्यञ्जन कर रही है।

अन्धकार हो जाने पर नायक अन्य नायिका को तथा नायिका अन्य नायक को प्राप्त करने के लिए यदि निकले हों और जब वे परस्पर मिलित हो जाएँ, तब जिस व्रीड़ा मिश्रित श्रृंगार रस की अनुभूति होती है। तब ऐसा कौन-सा रस है, जिसे प्राप्त करना अवशिष्ट रह जाय। उस व्रीड़ा-मिश्रित रस में सब प्रकार के रसों का समागम हो जाता है।

भ्रमात् से तात्पर्य है कुंज की ओर भ्रमण करते हुए परस्पर मिल गये हों, अन्धकार में परस्पर वार्तालाप से पहचान लिये गये हों अथवा अन्य किसी प्रयोजन से गये हों और मिल गये हों। वार्तालाप होने से सात्त्विक भाव के द्वारा स्वर-भंग से पहचान लिये गये हों। मिलन के साथ ही वे सहसा आलिंगन करते हैं, किन्तु दोनों को भय रहता है कि कहीं किसी ने देख न लिया हो। अत: 'भयानक रस' प्रादुर्भूत होता है, जिसका 'भय' स्थायी भाव है। कान्ता के बार-बार मना किये जाने पर भी नायक अपनी हठवृत्ति के कारण उसका चुम्बन करता है, दन्तक्षत करता है। पर पुन: उसे शोक होता है मैंने व्यर्थ ही इसे कष्ट पहुँचाया, लाख मना करने पर भी माना नहीं। अत: करुणा से उनका अन्त:करण विगलित होता है। अत: यहाँ 'करुण रस' प्राप्त होता है। काम को प्रोत्साहित करने के लिए परस्पर नखोल्लेख करते हैं, जिसका स्थायी भाव है 'उत्साह'।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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