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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
एकादश: सन्दर्भ
11. गीतम्
पद्यानुवाद बालबोधिनी- इस प्रबन्ध की उपसंहृति करते हुए कवि कहते हैं कि सखी श्रीराधा को श्रीकृष्ण के सन्निकट पहुँचने के लिए अनेक प्रकार से प्रेरित कर रही है कि श्रीकृष्ण तुम्हारे विरह में कामजन्य कष्ट से दु:खी हैं। तुम अभी तक आयी नहीं हो ऐसा सोचकर बार-बार साँस लेते हैं, दीर्घ-नि:श्वासधारा छोड़ते हैं। तुम अभी तक उनके पास पहुँची नहीं हो प्रतीक्षारत होकर बार-बार चारों दिशाओं में देखते हैं। तुम किस दिशा से आ रही हो, यह देखने के लिए लताकुंज से बाहर आते हैं। पुन: लताकुंज में प्रवेश करते हैं, यह समझकर कि तुम कहीं आकर वहाँ छिप तो नहीं गयी हो? कभी बाहर, कभी अन्दर, बार-बार क्यों ऐसा करते हैं? इसलिए कि 'वह आ तो नहीं रही हैं, वह क्यों नहीं आयीं, किस कारण से रुक गयीं अथवा कहीं डर तो नहीं गयीं' इस प्रकार से उसके अनागमन के कारण का विचार करके बार-बार बहुत प्रकार से अव्यक्त शब्द करते हैं। पुन: यह सब सोच-विचारना व्यर्थ है- वह अवश्य ही आयेंगी ऐसा निश्चय कर शय्या की रचना करना प्रारम्भ कर देते हैं। 'कदन' शब्द से तात्पर्य है मुझसे अनुराग होने के कारण अवश्य ही आयेंगी। अत: उत्कण्ठित होकर बार-बार देखते हैं। प्रस्तुत श्लोक में हरिणी छन्द तथा 'दीपक' अलंकार है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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