गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 235

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
एकादश: सन्दर्भ
11. गीतम्

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पद्यानुवाद
तेरे आनेकी आशा जब लगती पल पल घटने।
तभी विकलता बढ़ जाती है, लगता धीरज हटने॥
कभी प्रतीक्षा-दृग से लखते और उसा सें भरते।
होकर भ्रान्त कुंज में जाते फिर आँखों से ढरते॥
बार-बार शय्या रचते हैं, खूब साधना साधे।
मदन-कदन-परिक्लान्त कान्त हैं तेरे री सखि! राधे॥

बालबोधिनी- इस प्रबन्ध की उपसंहृति करते हुए कवि कहते हैं कि सखी श्रीराधा को श्रीकृष्ण के सन्निकट पहुँचने के लिए अनेक प्रकार से प्रेरित कर रही है कि श्रीकृष्ण तुम्हारे विरह में कामजन्य कष्ट से दु:खी हैं। तुम अभी तक आयी नहीं हो ऐसा सोचकर बार-बार साँस लेते हैं, दीर्घ-नि:श्वासधारा छोड़ते हैं। तुम अभी तक उनके पास पहुँची नहीं हो प्रतीक्षारत होकर बार-बार चारों दिशाओं में देखते हैं। तुम किस दिशा से आ रही हो, यह देखने के लिए लताकुंज से बाहर आते हैं। पुन: लताकुंज में प्रवेश करते हैं, यह समझकर कि तुम कहीं आकर वहाँ छिप तो नहीं गयी हो? कभी बाहर, कभी अन्दर, बार-बार क्यों ऐसा करते हैं? इसलिए कि 'वह आ तो नहीं रही हैं, वह क्यों नहीं आयीं, किस कारण से रुक गयीं अथवा कहीं डर तो नहीं गयीं' इस प्रकार से उसके अनागमन के कारण का विचार करके बार-बार बहुत प्रकार से अव्यक्त शब्द करते हैं। पुन: यह सब सोच-विचारना व्यर्थ है- वह अवश्य ही आयेंगी ऐसा निश्चय कर शय्या की रचना करना प्रारम्भ कर देते हैं।

'कदन' शब्द से तात्पर्य है मुझसे अनुराग होने के कारण अवश्य ही आयेंगी। अत: उत्कण्ठित होकर बार-बार देखते हैं।

प्रस्तुत श्लोक में हरिणी छन्द तथा 'दीपक' अलंकार है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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