गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 232

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
एकादश: सन्दर्भ
11. गीतम्

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हरिरभिमानी रजनिरिदानीमियमपि याति विरामम्।
कुरु मम वचनं सत्त्वर-रचनं पूरय मधुरिपुकामम्॥
धीर समीरे यमुना तीरे... ॥7॥[1]

अनुवाद- इस समय श्रीकृष्ण अभिमानी हो रहे हैं, रात्रि का अवसान भी हो रहा है, अतएव मेरी बातों को स्वीकार करो और अविलम्ब चलकर मधुरिपु श्रीकृष्ण की कामनाएँ पूर्ण करो।

पद्यानुवाद
रैन सिरानी, पिय अभिमानी कर न सजनि! अब देरी।
जाकर उनसे सत्वर मिल ले इतनी अनुनय मेरी

बालबोधिनी- सखी कह रही है श्रीकृष्ण बड़े मनस्वी हैं, लाक्षणिक अर्थ यह है कि श्रीकृष्ण अन्यमनस्क हो रहे हैं, तुम्हें मनाने के लिए अत्यन्त प्रयत्नशील हैं, तुम दूसरे के साथ उनके मत करो। मनस्वी के संदर्भ में यह कथनीय है कि वे अपने स्वाभिमान की सुरक्षा के लिए तुम्हारे पास तक नहीं आ सके, कहीं वे तुम्हारा त्याग न कर दें- 'हरिरभिमानी, त्वत्तो लाघवं न सहते, पश्चात्त्वा त्यक्षति'। जो कार्य तुम्हें बाद में करना है, उसे अभी क्यों नहीं कर लेतीं? रात बीतती जा रही है। अभिसरणीय बेला समाप्त हो रही है। मेरी बात मानो, तुम श्रीकृष्ण के पास सत्त्वर ही चलो और उनकी अभिलाषाएँ पूर्ण करो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- हरि: (श्रीकृष्ण:) अभिमानी (अतिशयेन त्वां मानयितुं शीलं यस्य तादृश:, त्वदेकपर इत्यर्थ:); इयं रजनि: (रात्रि:) अपि विरामं (अवसानं) याति (तस्मात्) मम वचनं सत्त्वर-रचनं (सत्त्वरा रचना अनुष्ठानं यस्य तादृशं), अथवा सत्त्वरा रचना वेश परिपाटी यत्र तद् यथा तथा कुरु); मधुरिपु-कामं (मधुरिपो: हरे: कामं मनोरथं पूरय) ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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