गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 225

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
एकादश: सन्दर्भ
11. गीतम्

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नाम-समेतं कृत-संकेतं वादयते मृदुवेणुम्।
बहु मनुतेऽतनु ते तनु-संगतपवन-चलितमपि रेणुम्
धीर समीरे यमुना तीरे... 2॥[1]

अनुवाद- हे राधे! तुम्हारे नाम का संकेत करते हुए वे कोमल वेणु बजा रहे हैं। तुम्हारे शरीर को संपृक्त करके वायु के साथ आये हुए बहुत अधिक धूलि-कणों के स्पर्श से स्वयं को अति सौभाग्यशाली मानकर उनका सम्मान कर रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- नाम-समेतं (नाम्ना समेतं यथास्यादेवं) कृतसंकेतं (कृतं सप्रेत: इंगितिं यथा स्यात् तथा' अहमिह तिष्ठामि त्वमप्यत्रगच्छति नाम-समेत-कृतसंकेतार्थ: इति सर्वा सुन्दरी) मृदु (कोमलं यथा भवेदेवं) वेणुं वादयते [किञ्च] ते (तव) तनुस त-पवन-चलितमपि (तनु-स तेन गात्रस्पृष्टेन पवनेन चलिमपि) रेणुं (रज:) ननु (निश्चये) बहु मनुते (अधिकं मन्यते) [धन्योऽयं रेणु: यतस्तस्या: शरीरस्पृष्ट-वायो: स्पर्शसुखमन्वभूत्र, ममेदृशं भाग्यं नास्तीति बहुमानार्थ:] ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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