गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 222

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
अथ दशम: सन्दर्भ

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बालबोधिनी- अत: पर सखी श्रीराधा की मूर्च्छा का निवारण करने के लिए कृष्ण के चरित्र का पुन: सिञ्चन करती हुई श्रीराधा का अभिसारिका नायिका के रूप में वर्णन करने लगी। वह श्रीराधा को यह कहकर प्रसन्न करना चाहती है कि माधव का मन उसमें ही अवस्थित है। राधे! माधव ने जिस निकुञ्जरूपी मन्मथ-महातीर्थ में तुम्हारे साथ रहकर चुम्बन, आलिंगन आदि काम की महासिद्धियों को प्राप्त किया था, वे फिर आज उसी परिरम्भ-अमृत की अभिलाषा कर रहे हैं। तुम्हारे कुचकुम्भ का गाढ़ालिंगन ही अमृत है, उस महातीर्थ का जल अमृत है। वे उसी कामदेव के महातीर्थ में रहकर तुम्हारे स्वरूप का ध्यान करते हुए तुम्हारे साथ हुए वार्तालापों का मन्त्रावली के रूप में अहर्निश जप कर रहे हैं।

देवता के सामने एकान्त ध्यान-जप के द्वारा ही सिद्धि प्राप्त होती है। अत: कृष्ण निकुञ्जरूपी कामतीर्थ में रतिपति अर्थात आपके सम्मुख आपको ही उपलक्षित करके आपकी प्रसन्नतारूपी कामसिद्धि को प्राप्त करना चाहते हैं। इन्हीं निकुञ्जों में ही उन्हें काम की सिद्धि प्राप्त हुई थी। काम की सिद्धि के लिए तुम्हारा वार्तालाप मन्त्र बन गया। तुम ही उस निकुञ्ज की देवता हो। मन्त्रजप के द्वारा तुम्हारे कुम्भ के समान उन्नत उरोजों का गाढ़ालिंगन रूपी अमृत को वे प्राप्त करना चाहते हैं।

प्रस्तुत श्लोक में शार्दूलविक्रीड़ित छन्द है, काव्यलिंग अलंकार है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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