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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
अथ दशम: सन्दर्भ
पूर्वं यत्र समं त्वया रतिपतेरासादिता: सिद्ध्य- अनुवाद- राधे! माधव ने पहले निकुञ्ज रूपी महातीर्थ में तुम्हारे आलिंगन आदि मनोरथों की सिद्धि के लिए मन्मथ की सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उसी महातीर्थ में कामदेव की सिद्धियों के लिए सदैव तुम्हारा ध्यान करते हैं। तुम्हारे साथ किये गये वार्तालापवली-मन्त्र को जपते हुए तुम्हारे कुचकुम्भों के गाढालिंगनरूपी अमृतमोक्ष की पुन:-पुन: अभिलाषा कर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- पूर्वं यत्र त्वया समं (सह) रतिपते: (मदनस्य) सिद्धय: (त्वया सह आश्लेषादिका:) आसादिता: (प्राप्ता:) [माधवेनेति शेष:] तस्मिन्नेव निकुञ्ज-मन्मथ-महातीर्थे (निकुञ्जरूपे मन्मथ-केलिसिद्धिक्षेत्रे) [त्वमेव तस्यैष्टदेवतेति त्वत्साक्षात्कार-लाभाय] माधव: पुन: त्वाम् [प्राप्तूकाम एव] अनिशं (निरन्तरं) ध्यायन् [तथा] [मन्त्रजपस्तरेण इष्टदेवता नाचिरात् प्रत्यक्षभूता भवतीति] तवैव आलापमन्त्रवलीं (आलापरूपां मन्त्रसमूहम्) जपन् भूय: (प्रचुरं यथा तथा) त्वत्कुचकुम्भ निर्भरपरीरम्भामृतं (तव कुचकुम्भयो: निर्भरालिगंनरूपममृतं) वाञ्छति ॥1॥
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