गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 221

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
अथ दशम: सन्दर्भ

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पूर्वं यत्र समं त्वया रतिपतेरासादिता: सिद्ध्य-
स्तस्मिन्नेव निकुञ्ज-मन्मथ-महातीर्थे पुनर्माधव:।
ध्यायंस्त्वामनिशं जपन्नपि तवैवालाप-मन्त्रवलीं
भूयस्त्वत्कुचकुम्भ-निर्भरपरीरम्भामृतं वाञ्छति ॥1॥[1]
इति दशम: सन्दर्भ:।

अनुवाद- राधे! माधव ने पहले निकुञ्ज रूपी महातीर्थ में तुम्हारे आलिंगन आदि मनोरथों की सिद्धि के लिए मन्मथ की सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उसी महातीर्थ में कामदेव की सिद्धियों के लिए सदैव तुम्हारा ध्यान करते हैं। तुम्हारे साथ किये गये वार्तालापवली-मन्त्र को जपते हुए तुम्हारे कुचकुम्भों के गाढालिंगनरूपी अमृतमोक्ष की पुन:-पुन: अभिलाषा कर रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- पूर्वं यत्र त्वया समं (सह) रतिपते: (मदनस्य) सिद्धय: (त्वया सह आश्लेषादिका:) आसादिता: (प्राप्ता:) [माधवेनेति शेष:] तस्मिन्नेव निकुञ्ज-मन्मथ-महातीर्थे (निकुञ्जरूपे मन्मथ-केलिसिद्धिक्षेत्रे) [त्वमेव तस्यैष्टदेवतेति त्वत्साक्षात्कार-लाभाय] माधव: पुन: त्वाम् [प्राप्तूकाम एव] अनिशं (निरन्तरं) ध्यायन् [तथा] [मन्त्रजपस्तरेण इष्टदेवता नाचिरात् प्रत्यक्षभूता भवतीति] तवैव आलापमन्त्रवलीं (आलापरूपां मन्त्रसमूहम्) जपन् भूय: (प्रचुरं यथा तथा) त्वत्कुचकुम्भ निर्भरपरीरम्भामृतं (तव कुचकुम्भयो: निर्भरालिगंनरूपममृतं) वाञ्छति ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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