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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
अथ दशम: सन्दर्भ
10. गीतम्
ध्वनति मधुप-समूहे श्रवणमपिदधाति। अनुवाद- मधुकरों की गुञ्जार को सुनकर वे अपने कानों को हाथों से ढक लेते हैं। प्रत्येक रात्रि में तुमको पावेंगे सोचते हैं, किन्तु पाते नहीं अतएव दिन-प्रतिदिन विरह-व्यथा में विजातीय यन्त्रणा को सहन करते हुए अधिकाधिक रुग्न होते जा रहे हैं। पद्यानुवाद बालबोधिनी- यद्यपि चहुँदिशि भौंरों की झौर-की-झौर गुनगुना रही है, परन्तु अलियों का गुञ्जन श्रीकृष्ण को प्रसन्न नहीं कर रहा, अपितु कर्णकटु हो रहा है। अतएव हाथों से अपने कानोंको बन्द कर देते हैं। प्रत्येक रात्रि में ऐसा मानते हैं कि आप उनके पास हैं, परन्तु आपको न पाने से उनकी विरह-वेदना और बढ़ गयी है। हृदय विरह से सराबोर हो गया है, इसलिए वे करवटें बदलते रहते हैं, छटपटाते रहते हैं। प्रस्तुत पद्य में सखी के द्वारा विप्रलम्भ के उद्दीपन विभावों का वर्णन हुआ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- मधुपसमूहे (भ्रमरचये) ध्वनति (गुञ्जति सति) श्रवणम् (कर्णम्) अपिदधाति (आच्छादयति; उद्दीपनत्वेन असह्यत्वादिति भाव:); [तथा] निशि निशि (प्रतिरात्रि) वलितविरहे (अत्युद्रिक्त-विरहे) मनसि रुजम् (पीड़ाम्) उपयाति (अधिकमाप्नोति)। [निशाया: तत्प्राप्तिकालत्वात् त्वदप्राप्त्या अलिध्वनिश्रवणात्र पीड़ामनुभवतीत्यर्थ:] ॥3॥
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