विषय सूची
श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:
अथ नवम: सन्दर्भ
9. गीतम्
क्षणमपि विरह: पुरा न सेहे अनुवाद- जो एक क्षण के लिए भी आपके दर्शन में अन्तराल डालने वाले निमेष-निमीलन को सह नहीं पाती थीं, वही श्रीराधा तुम्हारे इस दारुण विरह में सुललित सुपुष्पित आम्रवृक्ष (जिसके ऊपर की शाखाओं में नवीन पुष्प मञ्जरी संलग्न हैं) के समक्ष ही इस दीर्घकालिक विरह में अवलोकन करते हुए कैसे जीवन अतिवाहित कर रही हैं यह मैं नहीं समझ पा रही? पद्यानुवाद बालबोधिनी- हे कृष्ण! इससे पूर्व श्रीराधा ने क्षणभर के लिए भी आपका वियोग नहीं सहा है। वह तो सदा-सर्वदा आपके पास रहती थीं। जब उनके नेत्रों के पलक गिरते थे। तो उस समय भी उनको बड़ा कष्ट होता था सोचती थी ब्रह्मा ने यह पलक गिरने की प्रक्रिया क्यों बनायी है। आपके मुखावलोकन में जरा-सी बाधा पड़ने पर भी जिनको अपार दु:ख होता था, वह अब चिरकाल से इस विरह को रसाल की पुष्पिताग्रा शाखाओं को देखकर भी कैसे सह पा रही हैं? कैसे उसकी साँसें चलती हैं? हर डाल के सिरे पर बौरे आ गये हैं, मञ्जरियाँ निकल आयी हैं। रसाल अर्थात रस का समूह उसकी डालियाँ पुष्पिताग्रा हो गयी हैं। यह वसन्त ऋतु की बेला है। वसन्त काल में तो विरहियों को वैसे ही मृत्यु के तुल्य कष्ट होता है। अतएव हे श्रीकृष्ण! श्रीराधा से अविलम्ब मिलें। श्रीराधा यह भी अपने मन में सोचकर जी रही हैं कि पुष्पिताग्रा रसाल शाखा को देखकर जिस प्रकार से मैं कामार्त हूँ, उसी प्रकार से श्रीकृष्ण भी मेरे लिए कामार्त होंगे। अत: वे अवश्य ही मुझसे मिलने आयेंगे। प्रस्तुत श्लोक में पुष्पिताग्रा छन्द है।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [हे कृष्ण] नयन-निमीलन-खिन्नया ("हा कथं नयने निमेषो मिलित: येन क्षणं कान्तदर्शनं विहन्यते इति" नयनयो: निमीलनेऽपि खिन्नया) यया पुरा ते (तव) क्षणमपि विरहो न सेहे, असौ पुष्पिताग्रां (सञ्जात-कुसुमाग्रां) रसालशाखां विलोक्य चिर-विरहेण कथं श्वसिति (प्राणिति); [निमेषविरहासहन-शीलाया: चिरविरह-सहनमतीवाश्चर्यम्] ॥4॥
संबंधित लेख
सर्ग | नाम | पृष्ठ संख्या |