गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 209

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ नवम: सन्दर्भ

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कन्दर्प-ज्वर-सञ्जवरातुर- तनोराश्चर्यमस्याश्चिरं
चेतश्चन्दनचन्द्रम:-कमलिनी-चिन्तासु सन्ताम्यति
किन्तु क्लान्तिवशेन शीतलतनुं त्वामेकमेव प्रियं
ध्यायन्तीं रहसि स्थिता कथमपि क्षीणां क्षणं प्राणिति ॥3॥[1]

अनुवाद- हे माधव! कैसे आश्चर्य की बात है कि मदन-ज्वर के प्रबल सन्ताप से समाकुला क्षीणांगी श्रीराधा चन्दन, चन्द्रमा और नलिनी आदि शीतोपचार के साधन का विचार करते ही सन्तप्त होने लगती हैं। अहो, क्लान्ति के कारण वह दुर्बला शीतल तनु आपका ही एकान्त में ध्यान करती हुई किसी प्रकार कुछ क्षणों के लिए जी रही है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- कन्दर्पज्वरसंज्वरातुरतनो: (कन्दर्पज्वरेण य: संज्वर: सन्ताप: तेन आतुरा कातरा तनुर्यस्य तस्या:) अस्या: (राधाया:) चेत: (चित्तं) चन्दन-चन्द्रम:-कमलिनी-चिन्तासु (चन्दनस्य चन्द्रसम: कमलिन्या: पद्मिन्याश्च स्पर्शनादिकन्तु दूरे आस्तां तेषां चिन्तासु) चिरं सन्ताम्यति (ग्लानिमृच्छति) [तर्हि कथं सा जीवतीत्याहज]- किन्तु [असौ] क्षान्तिरसेन (त्वदागमन-प्रतीक्षा क्षान्ति:, तत्र यो रसो नुराग: तेन (शीतलतरंचन्दनादय: शीतला: त्वं शीतलतर:; यत: तदीयदोषेऽपि क्षमाशील:; क्षमावतां देहे उष्णता न जायते इति भाव:) एकम् (अद्वितीयम् एतेन अनन्यगतित्वं सूचितं) प्रियं [त्वां] रहसि (एकान्ते) स्थिता ध्यायन्ती [सती] क्षीणापि (नितरांकृशापि) कथं (कथमपि) क्षणं प्राणिति (जीवति) [तत्तद्वस्तुस्मरणे ताम्यति भवद्ध्यानेतु जीवतीति] आश्चर्यमेतत् ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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