गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 208

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ नवम: सन्दर्भ

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पद्यानुवाद
वैद्य! रसौषधि दे उसको अब फिरसे चेतन कर दो
इंगित-भाषिणिकी जिंह्वा में फिरसे वाणी भर दो॥
स्पृशामृतसे 'स्मर'-बाधाको हे हरि! सत्त्वर हर लो।
काँप रही हूँ! कहीं न उरको, निठुर वज्र सा कर लो॥

बालबोधिनी- सखी ने श्रीकृष्ण को दो विशेषणों से विभूषित किया-

(1) दैवतवैद्यहृद्य- श्रीकृष्ण की अभिरामता एवं मनोरमता स्वर्गलोक के वैद्य अश्विनीकुमारों से भी बढ़कर है।

(2) उपेन्द्र- दु:खी देवताओं का कल्याण करने के लिए श्रीकृष्ण ने माता अदिति के गर्भ से वामन भगवान के रूप में भी अवतार लिया था। इन्द्र के छोटे भाई होने के कारण वे उपेन्द्र कहलाये। इस विशेषण से श्रीकृष्ण का आश्रितजनतासंरक्षणैकव्रतित्व का निदर्शन हुआ है।

श्रीराधा काम-व्याधि से आतुर बनी हुई हैं। उनके इस असाध्य रोग की एकमात्र औषधि आपका संयोग है। आपके अंगों का स्पर्श उनके लिए अमृतवत् है। कोई प्रयास भी तो नहीं करना है आपको। यदि आप अपने अंग-संग से उनको संजीवित नहीं करते तो आप निश्चय ही वज्र से भी अधिक कठोर माने जायेंगे। इस श्लोक का उपेन्द्रवज्रा वृत्त है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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